________________
फलतः पापशुद्धि नहीं हो पाती ।
(२) अथवा पाप रूप की जानकारी तो हो किन्तु अति राग के कारण पापाचरण करे, लेकिन अब उसकी शुद्धि करने गुरू के पास जाना पड़े तब शर्म आए, अपनी मानहानि मालूम हो, अतः गुरू के पास न जाय, किया हुआ पाप प्रकट न करे । और शायद कहे भी तो ऐसी चतुराई से कहे जिससे अपनी विशेष तुच्छता न दिखाई
| अभिमान कैसे भुलाता है ?:
उसमें (१) या तो मिथ्यात्व का पोषण होता है, अथवा (२) मान-कषाय, माया और अति राग पोसा जाता है। अब यह जीव अन्य धर्म-प्रवृत्ति करेगा भी तो ये मिथ्यात्वादि कहाँ दूर होनेवाले हैं ? और ये ऐसी चीजें हैं कि बुद्धि को कलुषित ही बनाये रखती है । पाप को पाप ही नहीं माने तब हृदय शुद्ध कैसे रहे? मैला अत्यन्त मैला ही कहा जाएगा ।
तो पापरूप में चाहे मान लिया हो, परन्तु दूसरी ओर पाप करने के बावजूद गुरू तथा लोगों के आगे बडप्पन और अच्छाई ही दिखानी है तो इससे मान नामक कषाय इतना जबरदस्त मौजूद है कि जिनाज्ञा जो पापशुद्धि का हुक्म देती है, उसकी परवाह नहीं रहती । या फिर मन उसे स्वीकार तो करता है पर पाप को शुद्ध किये बिना, वह पाप रह जाय तो उसमें जितनी बुराई नहीं दिखाई देती है ! उतनी बुराई मान को क्षति पहुँचने में दिखाई देती है | यह मानकषाय कितना जोरदार? यह सबुद्धि को कहाँ से आने दे ?
बुराई किस में ? इहलोक को मानहानि (अपमान) में या परलोक में ?
इस तरह सद्बुद्धि लाना चाहें तो पाप विषयक अचूक मान्यता होनी चाहिए और जिनाज्ञा के आदर के कारण पाप की खराबी मान-हानि की खराबी से ज्यादह भयंकर भी लगनी चाहिए। मान आहत हो उसमें ऐसी खराबी नहीं लगनी चाहिए। मन को ऐसा लगे कि - 'जरा सा मान खंडित हो उस में ऐसी क्या बुराई है ?' तभी गुरू के समीप पाप की शुद्धि करना संभव है । ऐसा करने से पाप का प्रतिक्रमण होकर उसके फल-स्वरूप पापकर्म से छुटकारा मिले, वरना पाप कायम रहें। अब या तो परलोक में उनके फल भोगने से दूर होंगे, अथवा उन्हें जोरदार तपस्या से खत्म किया जा सकता है । लेकिन इन दोनों में कठिनाई पडेगी, जब कि यहाँ शुद्धि करने में कम कठिनाई है। मरीचि ने उत्सूत्र-भाषण कर डाला। उसके बाद साधु के पास जाकर उस की
२४४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org