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________________ शुद्धि करने में क्या मुश्किल थी ? लेकिन ऐसा सूझा ही नहीं । तो फिर अब यह पाप कर्म जो टिका रहा उसे भोगने में कितनी दारूण आपत्ति का प्रसंग आया ? कई कई जन्मों तक जैनधर्म से ही वंचित रहना पड़ा ! गोशालक को अन्तमें पाप का पछतावा (पश्चात्ताप) हुआ फिर भी प्रभुके पास जाकर शुद्धि मांगने की क्रिया कहाँ हुई ? फलतः भावी काल में वह उन पाप कर्मों के कितने कितने दुःखद परिणाम भोगने वाला है ? | इस भव के पाप के सम्बन्ध में क्या करें ।। सारांश ‘गुरू समक्ष इस जीवन के पापों की शुद्धि कर लेनी चाहिए।' यही करने योग्य आसान काम है। इसमें (१) पाप नहीं मानने का मिथ्यात्व और (२) पापप्रकाशन में मानहानि होने का डर - इन दोनों को एक ओर छोड़ देना चाहिए। भगवान का यह टकसाली वचन है कि 'पुव्विं खलु कडाण कम्माणं, अप्पडिक्कंताणं वेयइत्ता मोरखो, नत्त्थि अवेयइत्ता'-पूर्व कृत कर्मों को पहले यदि नहीं प्रतिक्रमा गया, यदि उसके पहले शुद्धि नहीं कर ली गयी तो बाद में भवान्तर में अब उनके कटु फल मिलने के बाद ही उनसे छुटकारा होगा । अर्थात् अगर यहाँ पर प्रतिक्रमण कर लिया, शुद्धि कर ली तो पाप कर्मो से यहीं मुक्ति मिल जाएगी, बाद में उनके फल भोगना शेष नहीं रहेगा । यह हुई इस जन्म के पाप के प्रतिक्रमण की बात । अब गत भव के पापों के लिए क्या करना ?: इस पर विचार करने में सूत्र में यही आता है कि 'वेयइत्ता मोक्खो, तवसा वा झोसइत्ता' पाप कर्मों के कडवे फल भोग लेने पर उनसे छुटकारा होता है अथवा तप के द्वारा खत्म कर के भी उनसे छुटकारा होता है; इसमें भी खूबी यह है कि जिस तरह उपर्युक्त पापशुद्धि में मुश्किल कम थी, उसी तरह यहाँ तप से पाप समाप्त करने में कठिनाई कम है | कारण स्पष्ट है कि हम देखते हैं कि जब पाप कर्म उदय में आकर कटु फल हम पर पछाड़ने लगते हैं तब उसकी कोई सीमा नहीं रहती । जीवन में अनुभव होता है न कि कुछ संकट-आपत्तियाँ की कैसी भारी वर्षा हो जाती है अथवा कई कई वर्षों तक ऐसी पीछे पड़ जाती हैं कि आपत्ति हमारा पीछा ही नहीं छोडती । यह क्या है ? पूर्व के पापकर्मों के जटिल फल । इस दृष्टि से उन पापकर्मों का नाश करनेवाला तप करने में इतनी मुश्किल नहीं है। यहाँ प्रश्न उठता है कि - प्र० क्या तप में पाप का नाश करने की ऐसी ताकत है ? उ० हाँ; इसमें 'तवसा वा झोसइत्ता' यह जिन-वचन प्रमाण है । यह कह रहा है कि तप से पाप कर्म का ध्वंस होता है, नाश होता है, नहीं तो यह देखो न कि - २४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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