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________________ (१) गुरू के समक्ष प्रायश्चित्त पूर्ण शुद्ध हृदय से उन दोषादि का यथास्थिति आलोचन-प्रकाशन करके उनके दिये हुए प्रायश्चित का वहन करना; (अर्थात् पापों का प्रतिक्रमण करना ।) (२) पूर्व-भव के दोषों से उत्पन्न, और उनका प्रतिक्रमण न करने के कारण टिके हुए पाप-कर्मों का उदय सहर्ष सहन करना, और (३) पहले के शेष बचे हुए कर्मों के नाश के लिए तपोधर्म की साधना करना। पापशुद्धि क्यों आवश्यक है ? ये तीनों उपाय हमें अपने जीवन में अपनाने चाहिए ताकि पाप कर्मों की सफाई हो जाय। इतना ध्यान में रहे कि दान करें, व्रत ग्रहण करें, देवदर्शनादि प्रभु भक्ति करें और साधुसेवा करें इस तरह के और भी धर्मों का आचरण करें यह अच्छी बात है, जरूरी है, परन्तु पापशुद्धि कम आवश्यक नहीं है, बल्कि अधिक महत्व की वस्तु है । धर्म से पुण्य की वृद्धि होती है, परन्तु पाप, यदि उस की शुद्धि न की हो तो नये नये पाप कराया करेगा । और इससे भवभ्रमण जारी रहेगा । इस तरह एक ओर धर्म करें और दूसरी ओर संसार फिर भी कायम रहता हो तो यह कितनी खतरनाक बात है ? अतः पाप शुद्धि अति महत्त्व की है । यहाँ प्रश्न उठता क्या अकेली धर्म-प्रवृत्ति से नहीं चल सकता ? प्र. कभी पाप शुद्धि न कर सके, फिर भी धर्म करे तो उससे सद्बुद्धि तो मिलती ही है न ? फिर नये पाप करना कहाँ से उपस्थित होता है ? उ. पापाचरण इस तरह पैदा होता है कि पाप की शुद्धि नहीं की, तो उसके कारण उसके शल्य मन में बने रहेंगे, पाप के अनुबंध अर्थात् पाप में निहित बीज शक्तियाँ कायम रहेंगी । वे फिर सद्बुद्धि पैदा ही नहीं होने देंगी। पापशुद्धि के बिना किये गये अकेले धर्म-सेवन में पुण्य देने की शक्ति तो है सही, लेकिन सद्बुद्धि देने की शक्ति नहीं है । दिल के शल्य दिल को कलुषित रखते हैं, उसमें अकेला धर्म सेवन क्या कर सकता है ? दिल को निर्मल कैसे बना सकता है? पाप की शुद्धि क्यों नहीं करनी है? उसके पीछे के कारण - (१) या तो पाप की जानकारी ही नहीं है, अज्ञान दशा है । इसलिए ऐसा होता हो कि इसमें भला क्या पाप ? यह नहीं करना चाहिए ऐसा किसलिए? संसार लेकर बैठे हैं इसलिए दूसरों से काम पड़ता है, 'चीजवस्तु की जरूरत होती है, इसलिए सबकुछ करना पड़ता है। इस तरह गाढ़ मिथ्यात्व काम करता होता है, २४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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