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पर अगाध भक्ति और सद्भाव उभर आया । संवेग अर्थात धर्म के प्रति भरपूर (संपूर्ण) प्रेम उछल पड़ा। हृदय वैराग्य वासित बन गया। वह हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ और आचार्य महाराज के पैरों पड़ कर दोनों हाथो से महर्षि के चरण पकड़ कर कहने लगा
—
"भगवान् ! आपने मेरा जो दुश्चरित कहा, उसमें जरा भी फर्क नहीं है । अतः हे प्रभो । आप जिस तरह मेरे उन घोर पापों को जानते हैं वैसे ही यह भी जानते ही है कि मुझ अभागे के पापों को शुद्धि कैसे होगी । इसलिए भगवन् । मुझ पर पाप के महासागर में गिरे हुए पर कृपा कीजिये, और शुद्धि के उपाय बतलाइये, क्योंकि सत्पुरुष (सज्जन) तो दीनों और पतितों पर सर्वदा वात्सल्य धारण करते हैं ।"
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२२. पापनाश के उपाय
आचार्य भगवंत क्या कहते हैं?
धर्मनन्दन आचार्य महोदय चंडसोम से कहते है, "हे भद्रमुख ! (हे कल्याण की ओर दृष्टि वाले ! सभी सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवंतों ने इस तरह फरमाया है, और उपदेश दिया है कि
पुव्विं खलु भो कडाण कम्माणं अप्पडिकंताणं
वेयइत्ता मोक्खो नत्थि अवेयइत्ता तवसा वा झोसइत्ता !
पूर्वकृत कर्मों से छुटकारा नहीं है, सिवाय इसके कि,
(१) पूर्व में उसका प्रतिक्रमण यानी पश्चाताप, आलोचना, प्रायश्चितवहन द्वारा उससे वापस लौटना किया हो (लोटे हो) । अथवा
(२) बाद में उन कर्मों का विपाक भोग लिया जाय, अथवा
(३) तप के द्वारा उनका नाश कर दिया जाय।
कर्म नष्ट कैसे हों ?
यहाँ दोष दुष्कृत्य से उत्पन्न किये गये पापकर्मों का नाश करने के तीन उपाय बताये हैं
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