SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भडकने लगता है (२) कथन करते करते वह बढ़ता है और (३) कह चुकने के बाद मानो खुजली शांत हुई हो इसकी खुशी होती है । खुशी काहे की ? दूसरे को तुच्छ चित्रित कर उसके बदनाम होने की खुशी ! कैसी है हमारी यह अधमता! इस तरह परदोष कथन में हमारे चित्त में विकार - विकार और विकार ही पैदा होते है । इसलिए भी परदोष के विषय में मौन ही श्रेयस्कर है | समाज का चित्र घर घर परदोष-दर्शनः ज्ञानी जो कुछ करते हैं उसमें स्वयं निर्विकार होते हैं । लाभ होने के निश्चयवाले होते हैं । अतः उनके मार्ग अलग हैं । वे तो मौका आने पर परदोष कथन करे भी सही । परन्तु अज्ञानी होने के कारण हम में इन दोनों में से एक का ठिकाना नहीं, अतः हमारे लिए तो ज्ञानियों का दिखाया हुआ परदोष-मौन आदि मार्ग ही हितकर हैं । यह भूल जाने से, देखो, जीवन और जगत में कितने अनर्थ हो जाते हैं। परदोष का गान करने के फलस्वरूप तो अधिकांशतः परिवार के लोगों की ओर से भी अरूचि - असद्भाव प्राप्त होते हैं । आज घर घर यह देखा जा सकता है | हमारे जीवन में भी यह अनुभव कहाँ नहीं है ? और घर के अलावा बाहर भी इस बुरी आदत के कारण कितने ही लोग हमारे विरोधी बना दिये जाते हैं, साथ ही श्रोता के कषाय बढ़ते हैं। जाने दो अनर्थ का हिसाब लगाना ! परदोष गाने के पीछे समाज बरबाद हो रहा है । चंडसोम पर अद्भुत प्रभावः यहाँ स्थिति अलग है । आचार्य महाराज ज्ञानी हैं, निर्विकार हैं । उनका रास्ता भिन्न है | इसलिए वे चंडसोम का दुश्चरित्र जो प्रकट करते हैं उसका नतीजा यह होता है कि चंडसोम खड़ा हो जाता है, और महर्षि के चरणों में गिर कर प्रार्थना करता है, 'प्रभो! आप ऐसे अद्भुत ज्ञानी है कि मेरे मन की सूक्ष्म से सूक्ष्म बात भी जानते हैं कि मैंने पापशुद्धि का जो मार्ग ग्रहण किया है वह क्यों गलत है, क्यों बोगस है; तब फिर आपको सच्चे मार्ग का ज्ञान तो हो ही न। अतः कृपया मुझे सच्चा मार्ग दिखाइये, और पापों के नरकागार में से मेरा उद्धार कीजिए । प्रभो ! प्रभो ! मैं तो आपको पाकर कृतकृत्य हो गया । अब आपके बताए हुए क्लिष्ट-कठिन मार्ग पर चलकर पापों को साफ कर डालँगा।" - महाज्ञानी का समागम एवं वाणी प्राप्त होने से चंडसोम कितना हर्ष-विह्वल हो गया है कि चरित्रकार महर्षि कहते हैं कि - ‘चंडसोम के हृदय में आचार्य महाराज २४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy