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________________ (२) दूसरा कारण यह है कि आदमी की अपने दोष- दुष्कृत्य छिपाने की, जिससे कि कोई जान न जाय, कोई उसकी ओर अंगुलि न उठाए, ऐसी वृत्ति होती है । अतः यदि हम उसको बाहर प्रकट करें तो एक तो उसके मन को दुःख होता है और दूसरा संभवतः वह अब दूसरा अनर्थ करने को तत्पर हो जाय । जैसे कि उसमें ऐसी बात नहीं है यह दिखाने के लिए कोई झूठ चलता कर दे। प्रपंच रचे तो दूसरों को दुःख पहुँचे ऐसा हम क्यों करें ? इससे आगे बढ कर दूसरा (व्यक्ति) नये पाप और नये अनर्थ करने को प्रेरित हो ऐसा निमित्त क्यों खड़ा करें ? दूसरे के दोष गाने में दूसरें कों दुःख और पापबुद्धि देने की अधमता होती है। हमारी श्रेष्ठता इस में है कि दूसरे को दुःख न दें। दूसरे को पाप करने में निमित्त न बने । इसलिए भी परदोष विषयक मौन धारण करना लाभप्रद है । (३) तीसरा कारण यह कि अधिक तर जीवों को अपने दोष दुष्कृत्य की शुद्धि करने की अभिलाषा नहीं होती । अतः हम उसके अवगुण प्रकट करें उससे उसे शुद्धि की तीव्र इच्छा नहीं जगेगी। तो फिर परदोष गाने की क्या जरूरत ? दूसरे के दोषों का कथन तो उसे सुधारने के उद्देश्य से ही होता हैं न ? परन्तु इससे उस को विश्वास थोड़ा ही पैदा होगा कि मुझे यहाँ सुधार की सच्ची राह मिलेंगी। उसे कोई बोध शायद ही लगे ? कोई ऐसा. शुभ फल परदोष कथन में दिखाई नहीं देता; तब व्यर्थ थँक उडाने की क्या आवश्यकता ? इस विषय में तो मौन ही उत्तम - (४) तो प्रायः ऐसा भी नहीं होता कि बाहर दूसरों के आगे किसी के दोष- दुष्कृत्यों का वर्णन करने से उस सुननेवालें को या हम को खुद को भी प्रतिबोध लगे, वैराग्य उत्पन्न हो और अपने कषाय एवं दुष्कृत पर तिरस्कार उपजे । ऐसा कुछ घटित नहीं होता। उलटे ऐसा ही लगभग होता है कि परनिंदा करके दूसरे के अवगुण गाकर और सुनकर कषाय बढ़ता है । दोषी के प्रति द्वेष और अरूचि पैदा होती है। इसके अलावा उस के अन्य सुकृत-सद्गुणों पर से भी नजर हट जाती है। इस तरह हमें और सुननेवाले के कषाय और द्वेष में वृद्धि होती है, और गुणदृष्टि उड़ जाती है, ऐसा परदोष -गान क्यों करना ? परदोष के सम्बन्ध में तो मौन ही कल्याणकारी है; जिससे अपने-पराये कषाय न बढ़े और गुणदृष्टि लुप्त न हों ! (५) एक बड़ा कारण यह भी हैं कि हम ऐसे ज्ञानी नहीं, अतः ऐसी दोष-प्रकाशन जैसी प्रवृत्ति से लाभ ही होने का हमें ज्ञान नहीं है। लाभ के विश्वास के बिना प्रवृत्ति कैसे करें ? उलटे हमारे दिल में परदोष कथन करने के पहले ही से द्वेष २४० Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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