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________________ (३) दुश्चरित्र की शुद्धि की ही उसे अभिलाषा थी। और इस तरह कहने से उसे सच्चा मार्ग यहाँ मिलने का विश्वास उत्पन्न हो सकता था, और बोध लगने वाला था। और चौथे, (४) सभा में कहने से दूसरों को, यहाँ तक कि बड़े राजा जैसों को भी प्रति-बोध हो सकता था । आखिरी - (५) विशिष्ट ज्ञानी का रास्ता अलग है; वे ज्ञान में जो योग्य लगे सो करते हैं, और जो कुछ करे उसमें उन्हें खुद को राग-द्वेष का कोई विकार नहीं होता। यहाँ ये सशक्त कारण है, अतः अवधिज्ञानी आचार्य महाराज सभा में चंडसोम का कलुषित कृत्य प्रकट कह देते है । इस पर विचार करें तो ज्ञात होगा कि दूसरों का दोष - दुष्कृत्य बाहर प्रकट न करने के पीछे क्या क्या कारण होते हैं ? | परदोष के विषय में मौन रखने के कारण: (१) सामनेवाले को दोष-दुष्कृत्य का पश्चाताप नहीं है । और यदि हम इस विषय में मौन न रहकर बाहर कहने लग जाएँ तो उस व्यक्ति में द्वेष का नया दोष पैदा हो। सचमुच अपने दोष का पश्चाताप हो तो मन को लगेगा कि 'यह प्रकट होने से मेरी जो बदनामी होगी उस नुकसान का मूल्य ही क्या ? भयंकर नुकसान तो मुझे अपने दुष्कृत्य से ही होनेवाला है । मेरी बेईज्जती भयंकर नहीं बल्कि उससे बढ़कर तो मेरा वह दुष्ट कृत्य महाभयानक है । परन्तु यह सुन्दर विचार बहुत कम लोगों को आता है । बाकी अधिकतर तो मनुष्य को अपनी दुष्टता का पश्चाताप भी नहीं होता; और उसे ऐसा मालूम होता है कि वह दुष्कृत्य हानिकारक नहीं किंतु बाह्य जो अनिष्ट घटित होता है वह है | इसीलिए जिस दिन हमें बाहरी बेईज्जती के नुकसान की अपेक्षा हमारे अपने दोष दुष्कृत्य से होनेवाले नुकसान भयंकर प्रतीत होंगे उस दिन सोने का सूरज उगा समझिये। इसकी गुंजाइश रहे इसलिए परदोष के बारे में मौन भला । । फिर तो हम बाह्य को तथा दूसरे को सुधारने की चिंता से अधिक हमारे अपने दोष के सुधारकर अपने भावी अहित को सुधारने की चिंता करेंगे | जगत के जीवों के लिए यह स्थिति आने को बहुत देर है । इसीलिए उन्हें अपने दोषों का ऐसा पश्चाताप ही नहीं, अतः उसका बाहर विज्ञापन करें, प्रकट करें इससे उनमें कोई सुधार नहीं होता, बल्कि उसका द्वेष बढेगा | जो बोलने का फल अच्छा नहीं वह क्यों बोला जाय ? इसलिए परदोष के सम्बन्ध में मौन रखना ही श्रेयस्कर है । यह हुआ एक कारण । - २३९ २३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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