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________________ बस, आचार्य महाराज के ये वचन सुनकर चंडसोम बैठा कैसे रहे ? उसे तो अपनी हकीकत सुनते हुए कुछ न कुछ हो ही रहा था, सो अब वह तो तुरन्त खड़ा हो गया और पानी-पानी हो गया | आगे आकर आचार्य देव के चरणों में गिरकर अविरल अश्रूधारा बहाता हुआ कहता है - ___ 'ओ बापजी ! आपने जो कुछ कहा सो अक्षरशः सच है | मेरे इस मन के भाव जैसे जैसे बने वैसा, और दूर देश में रहे हुए मैंने जो कुछ दुष्टता का आचरण किया सो आप जैसे महाज्ञानी के सिवा दूसरा कौन यथास्थित जान सकता है और कह सकता है ? हाय ! मैं मूढ़ ईर्ष्या और क्रोध में अंधा हो कर सुशील पत्नी पर कितना बड़ा अन्याय कर चुका हूँ ? और प्यारे भाई-बहन को कैसे जीते जी मार डाला ? तदुपरांत मैं कैसा हतभाग्य हूँ कि ये पाप धोने की बुद्धि होते हुए भी अज्ञानियों की सलाह के फंदे में पड़कर, जहाँ लेशमात्र भी पाप नहीं धुल सकते ऐसे तीर्थजल में स्नान करने हेतु भटकने निकल पड़ा ?, “प्रभु ! प्रभु ! आप महाज्ञानी हैं, अतः अब मेरा उद्धार कीजिए । मुझसे कहीं अतीत में कोई अनिच्छा से या अनजाने में हुए पुण्य की बलिहारी है कि मुझे यहाँ आप मिल गये। ___ 'आप इतने बड़े विशेष ज्ञानी हैं तो मेरे पाप कैसे धुलें यह भी आप जानते ही हैं। अतः हे नाथ ! कृपा कीजिये और ऐसे भयानक पापों का नाश करने का मार्ग बताइये। यह मार्ग कितना ही क्लिष्ट-कठिन क्यों न हो मैं उसका आचरण करने को तैयार हूँ। पाप करने में जब जरा भी पीछे नहीं देखा, कोई हृद नहीं रखी तो अब पाप का क्षय करने में जो कुछ असह्य भी करना पड़े तो उसमें क्यों पीछेहट करूँ ?" __ ज्ञानी की बलिहारी है । वे सामनेवाले की दुष्टता यहाँ सभा के बीच प्रकट करते हैं तो भी उसे कुछ बुरा नहीं लगता ! कि मेरी ऐसी बात इन अपरिचित लोगों के बीच क्यों कहते है ? क्यों मुझे नीचा दिखाते है ? उसके मन में ऐसा नहीं होता, यह बलिहारी ज्ञानी की है । तब पूछिये - प्र० ज्ञानी सामनेवाले की दुश्चरित्रताएँ क्यों प्रकट करते हैं ? उ० ऐसे तो प्रकट नहीं करते, परन्तु यहाँ प्रकट करने की वजह यह है कि - (१) एक तो वे सामनेवाले की खुद की ही दुश्चरित्रताकी सुलगती हुई पश्चाताप की आग को जानते है, (२) दूसरे, उसके गाँव में यह बात प्रकट हो ही चुकी थी और अब उसे छिपाने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी, तीसरे, . २३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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