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________________ आकर्षिणी कथा का दूसरा दृष्टान्त : एक धर्मपराङ्मुख व्यक्ति को रास्ते में मिले आचार्य भगवंत कहते है, 'क्यों भाई ! व्याख्यान में क्यों नहीं आते हो ?" उस आदमी को भय है कि 'महाराज के पास गये, तो कुछ पैसे - बैसे खर्च करने को कहेंगे ।' इसलिये वह छूटने के लिए कहता है, 'साहेब ! क्या करूं ? मुझे तो कई उपाधियाँ है ।' परन्तु आचार्य महाराज कहते हैं- 'तो क्या हुआ ? जरा पांच मिनट के लिए भी परमात्मा की वाणी सुनकर जाओ । इतने में कुछ नहीं बिगड़ेगा ।' सेठ सोचता है, 'यह तो ठीक है। पांच मिनट वहाँ बैठकर उठ जाऊँगा; महाराज साहब की बात भी रह जाएगी।' ऐसा सोचकर व्याख्यान में आने का कबूल करता है । अब आचार्य महाराज दूसरे दिन यह बात लक्ष्य में रखकर व्याख्यान शुरू करते हैं । जैसे ही सेठ को दूर से आते हुए देखा कि तुरन्त बात आगे चलाते हुए कहा 'देखो महानुभाव ! जगत में पुरुषार्थ चार प्रकार का है, इसमें 'अर्थ पुरुषार्थ में माननेवाले कहते हैं कि इतना कहा, इतने में तो सेठ नजदीक में आ गये; अब वे सुन सके इस तरह आचार्य भगवान ने बात आगे चलायी - 'दुनिया में पैसा है, तो सब कुछ है। पैसे . से ही बड़े व्यापार चलते हैं और जोरदार कमाई होती है । ' यह सुनकर बनिया तो चौंक उठता है। वह मन में सोचता है - 'अरे ! अंधा क्या चाहे आँख ! मुझे जो चाहिये था, वह मिल गया ! महाराजजी सच ही कहते हैं ! मैने पहले ऐसा क्यों मान लिया कि महाराज तो धर्म की ही बात करते हैं ? देने की ही बात करते हैं? मैं तो भूल गया था । अब सुनुं तो सही, आगे क्या कहते हैं ?' बस अब सेठ के कान चौकन्ने हो गये, आतुरता जगी । आचार्यदेव ने बात आगे चलायी - 'पैसों से सिर्फ व्यापार और कमाई ही नहीं होती, परन्तु बाग-बगीचे, बंगले - गाडी, नौकर चाकर, मेवा मिठाई सब कुछ मिलता है। अरे ! घरवाली भी पैसे के ढेर करने वाले पति को देवता की तरह पूजती है । लोग भी पैसेवाले को हाथ जोड़ते है, सलाम मारते है, भाव पूछते है । पैसे गये तो कोई भाव पूछनेवाला भी नहीं मिलता, सगे भी पराये बन जाते है, सामने तक नहीं देखते । सारा जीवन पैसे के बल पर ही सुखी बनता है। पैसे हो तो परदेश भी स्वदेश जैसा बन जाता है। पैसे हैं तो प्रतिष्ठा है। सेठ को नाक नहीं हो, Jain Education International - ******* १७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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