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नकली लकडे का नाक हो, तो भी सेठजी नाकवाले कहलाते हैं । नहीं तो नाक होने पर भी दरिद्र मनुष्य नककटा कहलाता है।'
श्रोता सेठ अब बराबर आकर्षित हो गये हैं, सुनने में एकदम तल्लीन हैं । मन में 'हाँ ठीक है।', 'हाँ ऐसा ही है ।' ऐसे कर रहे हैं, तभी आचार्य महाराज कहते
___ “इस प्रकार पैसे से ही जीवन की उन्नति है, सुख-सन्मान है – ऐसा अर्थ पुरुषार्थवाला मानता है।"
"दूसरे काम पुरुषार्थ के रसिक ऐसा कहते हैं कि 'सिर्फ पैसा - पैसा क्या करते हो? क्या पैसे खा सकते हैं ? जीवन की मौज तो विषयसुख भोगने में है। पैसे तो हो, परन्तु बीबी झगडालु, कर्कश - कठोर शब्द बोलनेवाली मिली, तो क्या पैसे को चाटेंगे ? पैसे हो, परन्तु शरीर बीमार हो, रोगग्रस्त हो तो कैसा सुख ? मजा तो तभी आएगा यदि सुशील, पतिव्रता, मधुरभाषिणी स्त्री मिली हो, निरोगी शरीर मिला हो.....आदि मिलने से आनंद भरे सुखों का उपभोग करने को मिले । कंजूस का काका, पैसे होने पर भी धन गाड़कर रखे और खाने-पहनने के नाम पर कंगाल की तरह रहे । यह भी कोई जीवन है ? धन के बिल पर अजगर मूर्छा कर-करके जिंदगी पूरी कर देता है, इसमें क्या विशेषता ? जब कि पैसे थोड़े होने पर भी रंग - राग - विलास में मस्त रहकर जीये, तो जीवन जीने का मजा आये ।' इस प्रकार काम पुरुषार्थ में माननेवाले कहते हैं।"
यह सुनकर सेठ विचार करने लगे कि 'यह बात भी ठीक लगती है। सिर्फ पैसे ही इकट्ठे करते गये, न ठीक से खाया, न पीया, न मौज-मजा किये तो फिर पैसे किस काम के ? ऐसे जीने का क्या मतलब ? महाराज की बात एकदम सही है। अब आगे भी देखें तो सही, ये क्या कहते है ?'
कहाँ गयी सेठ की पांच मिनट ? 'पांच मिनट व्याख्यान में हाजरी देकर उठ जाऊँगा।' ऐसी गिनती करके आया हुआ सेठ पांच तो क्या पचास मिनट हो गयी, तो भी जैसे वहाँ चिपक ही गया ! किसके कारण ? आकर्षिणी-आक्षेपिणी धर्मकथा के कारण | धर्म की तरफ खींचने वाली यह आकर्षिणी कथा भी धर्मकथा ही है। धर्मोपदेशक गुरु के पास सेठ को पचास मिनट किसने रोके रखा ? आकर्षिणी कथा ने । इसीलिये यह कथा धर्म कथा है । आचार्य महाराज अब प्रवचन आगे चलाते हैं -
"तीसरे धर्म-पुरुषार्थ को मानने वाले ऐसा कहते हैं कि दुनिया के विषय-सुख भोग लिये, इसमें कौन-सी बड़ी बात ? इससे हाथ में क्या आया ? क्योकि
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