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नहीं, वहाँ तो मन ऐसे प्रसन्न रहता है कि 'संगीत-भक्ति करनेवाल मैं या हमलोग अकेले हों और दूसरे इस गुण से रहित हों ।' अर्थात् दूसरे में इस गुण के अभाव पर प्रीति हुई । दोष पर प्रीति (प्रेम) । कितना खतरनाक ? यदि स्वयं में ऐसा भक्ति गुण न होता तो स्वयं को अभागा-बदकिस्मत मानकर दूसरे के भक्ति-गुण पर प्रीति होती तो ठीक, लेकिन यह तो ऐसा हुआ कि खुद भक्ति -गुण प्राप्त करके ही उसपर से प्रीति दूर करदी !! अतः कहिये कि ___ अहंकार और मानाकांक्षा इतने अधिक खतरनाक हैं कि वे गुण-प्राप्ति होने पर गुणों पर से प्रीति को हटा देते है । और दूसरे में दोषों के अस्तित्व से संतोष दिलाते
__गुणी के प्रति मात्सर्य में ऐसे अहंकार और मानाकांक्षा का छिपा हुआ जहर पड़ा
___ यह तो हुई गुणवान् को गुणवान् के प्रति मात्सर्य की बात ।
(२) अब दोषी को गुणी के प्रति मात्सर्य की बात । सो पहले कर आये हैं । उसमें भी अहंकार और मानाकांक्षा सताती है । 'मैं कृपण के रुप में जाना जाऊँ
और यह फिर दानी के रुप में क्यों प्रसिद्ध हो जाय?' अतः उस पर मात्सर्य होता है । इस तरह अनपढ को पढेलिखे पर खार | (अशिक्षित को सुशिक्षित पर द्वेष) इसमें धन, अज्ञान आदि पर इतना अधिक मोह है कि दूसरे के धन-व्यय, ज्ञानप्राप्ति आदि भी सहन नहीं कर सकता । आत्मा की यह दुर्दशा कनिष्ठ है कि गुण पर जहर बरसता है और अपने दोष पर प्रीति होती है | कुपुरुष-दुर्जन का यह तीसरा लक्षण है-अभिनिवेश-ईर्ष्या-मात्सर्य ये तीन लक्षण दुर्जन-कुमानव के ।
| (४)स्वात्म-प्रशंसा (आत्मश्लाघा)
मानव को कुमानव बनानेवाली चौथी वस्तु है - स्वात्म-प्रशंसा । यह बात जल्दी दिमाग में उतर नहीं सकेगी कि 'हम अपने आप की प्रशंसा करते हों उस समय हम सुमानव मिटकर कुमानव बन जाते हैं ।' बताओ, क्या कभी आप बडाई करते समय ऐसा खयाल आया है ? मन को कभी ऐसे लगा कि 'अरे, मैं अपनेआप ही अपने गुण गाता हूँ, सो सचमुच एक अच्छे मानव के तौर पर मिट जाता हूँ ?' नहीं, आया हो तो तुरन्त पश्चात्ताप हो और आत्मश्लाघा करते करते रुक जायँ, और जो श्लाघा की है उसका असर मिटाने के लिए हमारे किसी जबरदस्त दोष पर लेक्चर शुरू हो जाय । परन्तु यह बात ही कहाँ है ? अपने गुणगान की
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