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क्रिया के महादुर्गुण के रुप में भासित होने की बात दूर रही उलटे उसमें बुद्धिमानी मालूम होती है । 'मैं अपनी बडाई सामनेवाले को कैसी चतुराई से गले उतार रहा हूँ ?' फलतः अपना बडप्पन हाँकने का मन में गर्व होता हैं । तब खेद या पश्चात्ताप होने की बात ही कहाँ रही ?
आत्मश्लाघा बड़ा दोष क्यों है ?
क्या आत्मश्लाघा बहुत बुरी चीज है ? परन्तु अनुभवी ज्ञानियों का यह निर्णय हैं कि आत्मश्लाघा कुमानवता को पुष्ट करती है । उसके पीछे का हेतु हैं. मनुष्य अपनी प्रशंसा कब करने बैठता है ?
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(१) मन में अहंत्व, घमंड उमड़ता हो कि, "मैं कुछ हूँ ।" तभी आत्म-प्रशंसा होती है ।
(२) पहाड जैसे अपने दुर्गुणों की ओर आँखें बन्द करे, मानो यह कोई बडी खराबी नहीं है ऐसा लगता हो अर्थात् महादोषों की खराबी ह्रदय को चुभती न हो, उसकी शर्म न आती है तो ही आत्मश्लाघा की जाती है। अन्यथा कोई बड़े मजे से अपने गुण गाने कैसे बैठे ?
(३) भीतर भरपूर मानाकांक्षा भरी पडी हो जिससे हर कहीं मान पाने के लिए, अच्छा दिखने के लिए व्यर्थ तरसता हो तो ही आत्मश्लाघा होती है ।
(४) फिर इस नान को इतना अधिक महत्वपूर्ण समझे कि चाहे बडे देव-गुरु और महापुरुषों को मान मिला चाहे नहीं मिला, उनका यशोगान हुआ या नहीं हुआ, इस ओर उसकी उपेक्षा हो, लापरवाही हो । तभी तो उनका गुणानुवाद करने के बदले अपने गुण गाने बैठ जाए न ? देवाधिदेव तो महागुणगान योग्य है परन्तु उनका गुणानुवाद कितने समय होता है और अपना गुणानुवाद कितने समय तक?
(५) मानाकांक्षा के पाप में स्वप्रशंसा करते समय यह भी देखा नहीं जाता कि “मैं यहाँ सामनेवाले किस व्यक्ति के आगे अपने गुण गा रहा हूँ ? किस के पास मान की इच्छा कर रहा हूँ ? कौन मुझे अच्छा माने इसकी अभिलाषा रख रहा हूँ ?” यदि ये माँ-बाप, गुरु या गुरुजन हों तो उन्हें “मैं अच्छा हूँ” यह मनवाने के बाद उनसे मेरे अवगुण सुधारने की शिक्षा कहाँ से मिलेगी ? और यदि मेरी प्रशंसा सुननेवाला यह कोई क्षुद्र व्यक्ति है तो ऐसे क्षुद्र को क्या अपना बनाऊँ? फिर तो मुझे इस के दबाव में रहना पड़ेगा और यह किसी तुच्छ कार्य में घसीटेगा तो ?
(६) आत्म- श्लाघा में यह भी एक बडी त्रुटि है की गुण तो शायद हो तो साधारण
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