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________________ कितनी भयंकर हैं कि दूसरे गुणवान् पर द्वेष करवा कर दूसरे दोषपूर्ण बने रहें इस बात पर गर्भित रूप से खुशी मनवाती हैं। अर्थात बाद में वे बेचारे दोषपूर्ण जीव भले ही दुर्गति के दुःख भोगते रहे; उन पर कोई करूणा नहीं लेकिन मानो खुशी या लापरवाही है । · अहंत्व और मानाकांक्षा से दूसरों के दोष पर प्रसन्नता : ऐसा घातक - निर्दय अहंत्व और वैसी मानाकांक्षा तुम में नहीं है न ? कई गुण तो धारण किए पर साथ में अहंत्व मानाकांक्षा नहीं रखते हो न? यदि रख रखी है तो तो समझ लो कि इस कारण तुम्हें दुनिया को दोषपूर्ण देखने में तसल्ली होगी । उस के दोषों पर एवं दोषों से उत्पन्न भयानक दुःखों पर तुम्हारे कलेजे को ठंडक मिलेगी। कसाई स्वार्थ के लिए पशु को मारता है परन्तु उससे पशु को जो दुःख होता है उस पर क्या खुश होता है ? तो इस तरह यहाँ स्वयं आदर पाने के लिए स्वयं अच्छे दिखने के लिए दूसरों के दोष पर खुश होना ? कैसा कलियुग ? - गुण धारण करते हुए भी गुण पर प्रेम नहीं ! तो अब यह सोचे कि 'खुद गुणवान् होते हुए भी यदि दूसरे गुणवान पर मात्सर्य रखे तो उसके पास गुण होते हुए भी क्या सचमुच उसे गुण अच्छा लगा ? गुण अच्छा लगना तो उसे कहते हैं कि दुनिया में जहाँ कही भी गुण हो, वह अच्छा लगे, उसे देख कर प्रसन्नता प्रमोद हो । यहाँ तो उलटे औरों के गुण पर खार बरसता है, तो गुण अच्छा कहाँ लगा ? और यदि गुण अच्छा नहीं लगे तो खुद ने सचमुच गुण धारण किया है कैसे कहलाएगा ? वस्तुतः वह गुण नहीं बल्कि अहंकार रक्षा और मानाकांक्षा के पोषण का ही एक साधन रख छोड़ा है । प्रभु भक्ति करनेवाला भी डूबता कहाँ पर है ? Jain Education International देखते हैं न कि - एक गायक ( गवैया) प्रभु भक्ति करता हो, पर दूसरे प्रभु - भक्ति करनेवाले गायक पर खार खाता है। ऐसे ही एक संगीत मंडल दूसरे संगीत मंडल पर ! यह क्या है ! गुणी को गुणी पर मात्सर्य । इस की गहराई में जाँच करो कि मनमें प्रधानतः क्या बैठा है ? मानाकांक्षा और अहंकार ही न ? 'दूसरा संगीतकार या संगीत - मंडल हो तो हमें इतना सम्ममान नहीं मिलेगा । भक्ति में हम इतने ऊँचे नहीं माने जाएँगे। मन में यह बैठा हुआ हो तो वहाँ फिर संगीत भक्ति का गुण तो उक्त मानाकांक्षा को पोसने का एक साधन मात्र हुआ, न कि प्रभु पर निछावर करनेवाले भक्ति गुण के रुप में गुण । गुण रुप में गुण होता तो अन्यत्र भी उसे देखकर खुश होता । २११ F For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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