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निकंदन सर्वनाश पर खुशी होती है ? तपस्वी को मात्सर्य
इसी तरह यदि एक तपस्वी दूसरे तपस्वी पर खार (द्वेष) रखे तो स्वभावतः वह तपोहीन, पेटू (खा खा करनेवाले) जीव के देख कर खुश होगा । मतलब? तब पेटूपन के कारण भयंकर दुर्गति में वह भटकने लगे उस पर प्रसन्नता ही हुई न? यदि उससे नाराजगी हो तो उसके कारणभूत पेट्रपन के दुर्गण पर नाखुशी नहीं होगी? और यह नाखुशी हो तो भला ऐसे दोष वाले पर दया न आएगी? कि 'बेचारी खाने में ही डूबकर भटकता रहेगा ? यदि ऐसा होता तब तो उक्त दोषरहित तपस्वी को देख कर आमोद - प्रमोद ही होता न कि 'वाह ! यह कैसा भाग्यवान् कि पेटूपन के दोष से बचा है। परन्तु यदि तपस्या-गुणवाले का दूसरे तपस्वी पर प्रमोद होने के स्थान पर द्वेष बरसता है तो यही गर्भित भाव आ खड़ा होता है कि 'दूसरा तपस्वी न हो तो अच्छा ।' उसमें फिर दोषवाले के प्रति आनंद है अर्थात दूसरे के दोष से खुशी । फिर भले ही वह दोषवाला पाप-बंध करे और भविष्य में अत्यन्त दुःखी हो? तात्पर्य - गुणवान के प्रति मात्सर्य में अत्यन्त दुःखी हो । तात्पर्य - गुणवान के प्रति मात्सर्य में कैसा छिपा हुआ जहर है ? | दानी में मात्सर्य
इसी तरह उदार दानी स्वयं यदि दूसरे उदार दानी को देख कर उसके प्रति खार (द्वेष) रखता हो, तो उसमें भी यही गर्भित है न कि वह दूसरे को कृपण धन की मूर्छावाला देख कर प्रसन्न होता है । अर्थात दूसरे की धनमूर्छा पर खुश! अपने में उदारता गुण तो आया परन्तु वह कैसा विषैला बना कि दूसरे के कृपणता-दोष पर प्रसन्न बनाता है ! ऐसा होता है न कि स्वयं ने एक बड़े सेठ के तौर पर फंड में सौ रूपये लिखाये किन्तु किसी छोटे व्यक्ति ने ढाई सौ लिखाये ऐसा सुनते ही दिल को दुःख होता है ! 'यह फिर कौन-सा बड़ा आ गया कि मुझसे अधिक देता है? इस तरह उस पर खार बरसता है । इसका अर्थ यह कि दूसरे लोग कृपणता रखें यह बात इसे अच्छी लगती है। गुणी पर मात्सर्य किस कारण ? - ऐसा गुणी को दूसरा गुणी पर खार बरसना तो कई जगहों पर पाया जाता है। यह सब कौन करवाता है? भयानक अहंत्व और मन की आकांक्षा । 'बस मैं ही विशेष (बढाचढा) हूँ | मुझ से बढकर कौन है ?' यह अहंता और 'मुझे ही एक अच्छे गुणवान के तौर पर आदर मिलना चाहिए। ऐसी मान पाने की आकांक्षा। जीव को ये दोनों मारती हैं । अतः यह सोचना चाहिए कि अहंता और मानाकांक्षा
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