________________
पर उसे ऐसा सौंदर्य-लावण्य क्यों मिला ? यही उसका अपराध । यह प्रेम को सुखा देनेवाली जलन पति में पैदा करता है । ऐसा लावण्य प्राप्त करानेवाला पुण्य किस प्रकार का ? पापानुबंधी पुण्य में तो ऐसा है कि वह अपने भोगनेवाले जीव को ही पाप में प्रवृत्त कराता है, पर यहाँ तो स्त्री सुशील है, पवित्र जीवन जी रही हैऔर उसे पति की और से जलन हासिल होती है । इस जलन का निमित्तभूत उसका लावण्य-पुण्य दूसरे पाप से मिश्रित माना जाता है |
जीव इस जीवन में कितनेक पुण्यों को साथ तो लाता है परन्तु साथ में ऐसे पाप-अशुभ कर्म भी लेकर आता है कि वे भी अपना भाग अदा करते जाते हैं जिससे उस पुण्य से एकान्त सुख की स्थिति नहीं होती , साथ में दुःख भी शामिल हुआ होता है। | पुण्य में पाप का मिश्रण क्यों ? |
इस स्त्री के पास ऐसे दौर्भाग्य के कर्म हैं कि उनसे उसे पति की ओर से संताप मिलता है । ऐसे अशुभ कर्मो का उपार्जन कौन करवाता है ? हृदय के कलुषित भाव, ऐसी बाह्य-प्रवृत्ति । एक और जीव धर्म करे तपस्या करे अतः एक ओर पुण्य तो पैदा होता है, पर दूसरी ओर उसके जीवन में पाप-प्रवृत्तियाँ, अनुचित वचन और हृदय में चिकने (न उखडनेवाले) रागद्वेष के संक्लेश रहा करते हैं अतः अशुभ कर्म भी साथ साथ बँधते जाते हैं | इसमें भी कर्मबंध का अन्तिम कारण तो हृदय का भाव हैं । भाव शुभ नहीं अतः आत्मा में कर्म-रूपी कूड़ा करकट बढता है, बाद में दूसरी ओर कभी शुभ भाव से किये गये सुकृत से पुण्य पैदा होता है , वह आगे चलकर सुखके दर्शन कराता है, किन्तु यह कूडा-कर्कट-कचरा भी अपना फल - पीडा भी खड़ी करता ही है। ___ नंदिनी को बाहरवालों की ओर से दृष्टि का आक्रमण और घर में पति की ओर से संताप-इस तरह दुहरी मार पडती है ।
प्र० खैर ! यह तो उसे उसके कर्मो से मिलता है परन्तु उसका पति जो ईर्ष्या करता है वह पति का अपराध है या नहीं ?
उ० अवश्य है। हमारे प्रति दूसरों को द्वेष हमारे ही कर्मों से :
प्र० इसमें पति का क्या कसूर ? उसे जलन तो पत्नी के कर्म करवाते हैं न?
उ० नहीं, एकान्ततः ऐसा नहीं है कि अकेले उसी के कर्म इसमें कारणभूत हों, इसमें पति की अपनी भी बुरी आत्मदशा सूचित होती है । इसीलिए पत्नी को ऐसा पति मिलने के भाग्य में एक हिस्सा पत्नी के संसार सुख देनेवाले पुण्य का
१८९
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org