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________________ विषसमान मानकर जीव को उनमें से अलग कर धर्म में लगा दिया जाता है । यह सूचित करता है कि धर्म करना सो पाप को ज़हर मानकर करना । उपवास किसलिए? __'खाना बुरा है इसलिए, खाने में बहुत पाप करते हैं, इसलिए, कभी कभी खाना छोड़ कर उपवास करो ।', मन को ऐसा लगता है अतः उपवास किस तरह से करना ? खाने के पाप को जहर मान कर करना । कहो, क्या इस तरह उपवास करते हो ? यदि नहीं तो यही मुश्किल होती है कि बाद में पारने में मजा आता है । वापस कभी उपवास करना आवश्यक हो तब उपवास इतने उल्लास से नहीं होता, जितने उल्लास से भोजन किया जाता है । इसी से उपवास के दिन कुम्हलाये हुए से बन जाते हैं, और खाने के दिन प्रफुल्लित बन जाते हैं । उपवास में कुम्हलाना ? (माना?) खाना तो दूसरे के घर में जाने के समान है । और उपवास अपने घर में आने के समान है । अपने घर आना हो तब कुम्हलाना चाहिए भला ? । किसी के मरने के पीछे कान करने दूरसे गाँव जाना हो तब प्रफुल्लिता नहीं होती । उसके घर आग्रहपूर्वक चाय-नाश्ता भोजन करने में आनन्द नहीं होता । खाने के लिए वहाँ उमंग से चार दिन ज्यादह रहने को मन नहीं करता । उसी तरह यहाँ भी 'खाना' पाप है, खान-पान के पुद्गलरुपी पराये घर में जाना सो शरीर को वहाँ काम करने जाने के समान लगता हो । शरीर को भूख लगी अथवा जीभ को खुजली सी चली कि बस उसकी तृप्ति, स्वस्थता, आनन्दरुपी सगे की मौत हो गयी । अतः शरीर को यहाँ कान करना जाना हुआ। अब आत्मा के ऐसा प्रसंग आया कि अपने सम्बन्धी शरीर के यहाँ कान करने जाना है, अर्थात् पर पुद्गल के पास जाना पड़ता है तो उसमें आनन्द-मंगल कैसा ? यहाँ कान का काम निपटा कर मुक्त हुए ऐसा मान कर खडे हो जाना चाहिए । ऐसी विचारणा हो तो,... उपवास के दिन 'आज कान नहीं जाना है' उस का आनंद हो, प्रफुल्लितता हो । यह तो कैसी बात है कि उपवास के दिन अभी मुश्किल से १० बजे हों तो भी चेहरा तो जैसे जुलाब लिया हो ऐसा उतरा हुआ, उदास । कोई पूछे कि 'ढीले क्यों दिखते हो ?' तो रोने जैसी शिथिल आवाज में कहेंगे 'आज मेरे उपवास - १८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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