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________________ यह सब होते हुए भी कोई पुण्य लेकर आया होगा कि उसका एक सुशील सद्गुणी, ब्राह्मण कन्या से विवाह हुआ | माता-पिता ने उसका विवाह कर के दूसरे छोटे बेटे-बेटी उसे सोंप दिये, और उन्हें भली भाँति सम्हालने की हिदायत देकर वे तीर्थयात्रा को निकल पड़े। आर्य देश की यह महिमा है कि काफी उम्र सांसारिक कुटुम्ब के काम में घिसटने के बाद आत्मा का काम सुधारने के लिए संसार से निवृत्ति ले और भगवद् भजन, परोपकार आदि में लग जाय । तो पूछिये कि - प्र० इसमें 'सौ चूहे मार के बिल्ली चली हज करने ' जैसा नहीं हुआ क्या ? उ० नहीं, वहाँ बिल्ली के मन से चूहे मारने का भाव मिटा नहीं है, अतः हज करने की बात दंभ है, जब कि यहाँ तो उम्र हो जाने पर (बुढापा आनेपर) । अब संसार का प्रपंच बुरा लगता है, माया जाल मालूम होता है, उसमें जीवन की बरबादी समझी जाती है, अतः तीर्थयात्रा, भगवद्भजन, सेवा-परोपकार, इन्द्रिय-संयम, तप वगैरह को कल्याणकारी मानकर उन्हें जीवन को सफल बनाने वाले समझ कर उनका आरंभ किया जाता है । प्रश्न उठता है - प्र० तो फिर ‘सौ चूहे मारकर' वाली कहावत व्यर्थ है ? उ० नहीं, उसका भाव यह है कि - (१) समझदार होते हुए भी खूब पाप कर लेना और बादमें दुनिया को दिखाने के लिए धर्म करने निकल पड़ना-यह अज्ञान-दशा है। (२) अथवा एक ओर पाप करने में कोई कसर न रखना और दूसरी ओर लोगों को मालूम पड़े ऐसी कोई धर्म करनी (धार्मिक-काय) कर लेना-यह दंभ है। (३) अथवा मामूली धर्म कर के यह मानना कि 'इससे मेरे पाप धुलते जाते हैं, बस, पाप किये जाओ-कोई हर्ज नहीं' यह अज्ञानदशा है | क्योंकि - धर्म जो करना है सो पापों को जहर मानकर करना है। फिर ऐसा हो कि किसी को पाप पहले से जहर तो लगे हों किन्तु अपनी कमजोरी के कारण पापों को दूर हटाने की शक्ति न हो तो बड़ी उम्र में जब वीर्योल्लास जागृत हो तब वह संसार में से बहुत हिलडुल करने के बाद विरक्त भाव से पापों को छोड़ कर आत्म-हित साधने में उद्यमवान बने । तो किसी को ऐसा भी हो कि पाप पहले से जहर जैसे न लगें हों तो भी बुढापे में पापों की विटंबना अनुभव होनेपर वे जहर मालूम हो तो उसके कारण, पहले वहाँ संसार को चाव से भोगकर बाद में भी अब उन पापों को दूर हटाकर आत्महित-साधन के लिए धर्म-मार्ग पर संचरण करे । तात्पर्य-आर्यदेश के वातावरण की यह विशेषता है कि आखिर बुढापे में पापों को -१८६/ १८६ -13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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