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आदि चार कषायों की बदौलत होता है । ___ अब इसके आगे आचार्य महाराज धर्मनन्दन इन पाँचो में से हर एक पर एक एक कहानी कहते हैं । परन्तु वह वहाँ उपस्थित जीवित मनुष्यों की ही जीवनकथा जीवन के प्रसंग हैं जिनमें क्रोध आदि एकएक कैसी कैसी भयानक करतूत कराते हैं सो देखने मिलता है। प्रसंग भी ऐसे कि उन्हें देख कर लगे-'अरे ! यह कषाय इन्हें इस हद तक घसीट ले जाता है ? मेरे भी अपने कषायों का क्या विश्वास करना रहा ? अतः अब इस उपाधि को छोड दूँ | ऐसे दुःखद कषाय या मोह करने की मुझे क्या जरुरत है ? यह जानने के बाद अब मैं इसमें किस लिए फँसूं ? इनके संस्कार दृढ़ हो जाने पर आगे चलकर विचित्र परिस्थितियों में कौन जाने ये कितने उग्र परिणाम में भभक उठे ? तब इनके कारण कैसे भयंकर अकार्य हों ? अतः अभी से इन्हे शांत करता चलूँ । आचार्य महाराज जो जीवन्त और वहाँ विद्यमान मनुष्यों के चरित्र कहनेवाले हैं वे ऐसी शुभ प्रेरणा देनेवाले हैं । अतः उन्हें अच्छी तरह ध्यान देकर दिल में प्रेरणा उत्पन्न करना । यह मुख्य मुद्दा ध्यान में रखना कि,
कषायों का अभ्यास चालू होगा तो विचित्र परिस्थितियों में कषाय बहुत जोर से भड़क उठने की संभावना है, अतः उन्हें अभी से दबा दो । क्रोध कितना बुरा है ? :
आचार्य महाराज राजा पुरन्दरदत्त से कहते हैं- "हे नरेश ! कषायों में प्रथम अकेला क्रोध ही इतना भयंकर है कि क्रोध से भरा मनुष्य ऐसा अंधा बन जाता है कि वह अर्थ-अनर्थ कुछ नहीं देखता । 'मेरे इस क्रोध से लाभ होगा या हानि ?' इस ओर उसकी दृष्टि ही नहीं होती। उसी तरह 'मैं क्रोधवश जो करने जा रहा हूँ उसमें धर्म होगा या अधर्म? यह कर्तव्य है या अकर्तव्य ? इसके परिणाम में दुर्गति मिलेगी या सद्गति ? आदि कुछ विचार नहीं करता । यह कुछ सोचना ही नहीं अतः फिर क्रोध के कारण मिथ्या विकल्प में पड़ कर वह सगे भाई-बहन का भी हत्यारा बनता है, जैसे कि यह पुरूष ।" ___ वहाँ सभा में तो अनेक लोग बैठे हैं । अतः निश्चित कौनसा आदमी ? यह जानने के लिए राजा पूछता है, 'भगवन् ! वह पुरुष कौन ? और उसने क्या किया था ?"
आचार्य भगवान कहते हैं- 'यह जो तुम्हारे बाईं ओर बैठा है सो । इसने क्रोधग्रस्त हो कर क्या किया था, सो सुनो ।'
ऐसा कह कर अब महर्षि उसका चरित्रकथन करते हैं । चरित्रकार ने इसमें सुन्दर कवित्व, उत्प्रेक्षाएं, वर्णन आदि विस्तार से प्रस्तुत किया है । परन्तु हम
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