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नहीं है । घडी भर के किसी पर क्रोध-द्वेष ऐतराज जागता है तो घडी बाद जीव अभिमान में खिंच जाता है अथवा माया छल-प्रपंच, दंभ, विश्वासघात जैसे मनोभाव में गमन करता है, अथवा लोभ, राग, ममता, तृष्णा लालसा जैसी कोई न कोई भावना आ खड़ी होती है।
कर्म किस तरह बंधते है।
बस ये सब कषाय आत्मा पर एक प्रकार की चिकनाई है । वह आत्मा पर कर्म रज को खींचती रहती है । तेलवाला कपड़ा वातावरण में से रजकणों को खींचता रहता है न? यह कर्मरज ऐसी है जैसे कोई फोड़ा | यह पकने पर कष्ट देता है । जैसे फोडे में से पस निकलता है, रसी निकलती है, बदबू आती है, वैसे कर्मरुज पकने पर जीव को विविध दुखः आ घेरते हैं । इनका मूल है कषाय ।
कषाय कैसे किये जाते हैं ?
तब प्रश्न होता है कि जीव ऐसे दुःख के कारणभूत कषाय कैसे-क्यों करता होगा? इसका जवाब यह है कि वह अज्ञान से अंधा है । उसे होश नहीं रहता कि 'ये कषाय कर कर के मैं संसार में अनन्तानन्त काल से बार बार जन्म और दुःख पाया करता हूँ' यह उसकी मोहमूढ दशा है ।
मोहमूढता देखो कि कितना भुलाती है ?
मेरे लिए क्या कर्तव्य (करणीय) है क्या अकर्तव्य (अकरणीय) है ? हितकारी क्या और अहितकारी क्या है ? कौन हितैषी है और कौन शत्रुका स्थान लेनेवाला ? सच्चा सुख कौनसी वस्तु देती है और दुःख में कौन डुबोता है ? मोह की वजह से मूढ बने हुए जीव को इसका कोई भान नहीं होता, इसलिए कषाय कर कर के बेशुमार हिंसादि अकार्य करता जाता है । मोहमूढ खाने के लालची की कैसी दशा होती है ? रोग बढते जाते हैं, चिल्लाया करता है कि 'मुझे गैस होता है, जीर्णज्वर रहता है, खाँसी-कफ होता है , तो भी फिर मनचाहा खाया ही करता है न ? जुआरी हारता जाता है, पैसे खोता जाता है तो भी जुआ खेलता रहता है न ? बस, संसारी जीव की भी ऐसी ही दशा है । अज्ञान-मोह-अविवेक के कारण दुःख के कारणों का ही सेवन करता रहता है, ऐसी ही कार्यवाही (कारवाई) किये जाता है जिससे अन्ततः दुःखही पाता है । यह सब मोहमूढता और क्रोध
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