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प्रयत्नशील रहना । (२४) सज्जनों से मैत्री का व्यवहार रखना। (२५) स्वयं पर आफत आए तब वज्र से गढा हो ऐसा दृढ हृदय रखना पर विह्वल न होना। (२६) समृद्धि में उन्मत्त न बनना ।
(२७) धर्म, आचार और गुणों को अपनाना । (२८) संकट के समय शिथिल न बनना (२९) किसीके भी धर्म आदि से ईर्ष्या - घृणा न रखना। (३०) कटु वाणी नहीं बोलना (३१) हँसी-मजाक (हास-उपहास) में भी दूसरे के हृदय को चुभने वाली बात मुँह से न निकालना ...
मंत्री का प्रश्नः. इस तरह से आचार्य महाराज का उपदेश चलता देखकर मंत्री को लगा कि यह तो कथांतर (विषयांतर) हो गया - बात बदल गई, इसलिए उसने पूछा - 'भगवन् । आपने जो इस संसार को दुःखरूप बताया, मूल में उस संसार का ही क्या कारण है, क्यों आज यह संसार चला करता है ?
आचार्य महाराज कहते हैं
कोहो य माणो य अणिग्गहया माया य लोहा य पवड्डमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ।। अण्णाणंधे जीवो पडिवज्जइ जेण विसमदोग्गइमग्गे ! मूढो कज्जाकज्जे एयाणं पञ्चमो मोहो ।
अर्थात् क्रोध और अभिमान निरंकुश प्रवर्तमान रहें साथ ही माया और लोभ बढ़ते ही रहे, तो ये चारों कषाय इस दुःखद संसार में बारबार जन्म के मूल को सींचते हैं और अज्ञान से अन्ध बना हुआ जीव इस संसार की विषम दुर्दशाएँ प्राप्त. कर के कार्याकार्य - कर्तव्याकर्त्तव्य में मूढ बनता है; संसार जारी रहने का यह भी पांचवाँ कारण है, इसे मोह कहते हैं ।
'कषाय' माने क्या ?
'कषाय' शब्द कह रहा है कि 'कष्' अर्थात् संसार और 'आय' अर्थात् लाभ । जिससे संसार का लाभ हो उसका नाम कषाय है । क्रोध-मान-माया-लोभ ये ही संसार का लाभ (वृद्धि) कराने का काम करते हैं । इन पर अंकुश न लगाये और इनका यथेच्छ सेवन करता रहे तो इससे संसार - अर्थात संसरण अर्थात चारों गतियों में जन्म-मरण और भटकना (भ्रमण) अच्छी तरह (खूब) चलता रहता है । जीवन पर दृष्टि करने पर दिखाई देता है कि इन चारों में से एक या दूसरे का सेवन कहाँ
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