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| १७. क्रोध कषाय
आचार्य भगवान् राजा से कहते हैं"हे पुरंदरदत्त महाराज! तुम्हें यह जो विचार हुआ कि 'इस मुनि को संसार पर वैराग्य होने का क्या कारण होगा? उस विषय में अब समझमें आया होगा कि जब संसार की चारों गतियों में दुःख, दुःख और दुःख ही है तो फिर ऐसे सांसारिक दुःखों का अनुभव करने के बाद अब और ही कोई वैराग्य का कारण पूछना है? सुज्ञ जीव के लिए दुःखों का यह करूण अनुभव ही ऐसा है जिससे संसार विष समान लगे । __ तो इस स्थिति में वैराग्य हो जाना क्या आश्चर्य की बात है ? वैराग्य न हो तो आश्चर्य है । हे महानुभाव ! तुम इतना तो समझो कि सभी जीव सब जातियों में और सब योनियों में अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं और उनमें बहुत कर्मपरंपरा को बहुत बार सृष्टि करके अनन्त बार मरण को प्राप्त हुए हैं । इस अपार जन्म-मरण की पीड़ा का सर्जन करने वाली कर्म परंपरा को रोकना हो तो इतनी बातें खूब ध्यान में रखोः
जन्म-मरण रोकने के लिए क्या करना चाहिए ?
(१) जीवों की हिंसा न करो। (२) सज्जनों का अपमान, दमन मत करो (३) जीवों के प्रति खूब दया रखना (४) इस हेतु से स्वभाव को सहिष्णु रखकर कभी क्रोध को मौका मत देना। (५) दुष्ट मनुष्यों से मैत्री न करना। (६) जीवन में झूठ को पैर न रखने देना (७) सत्य, संयम और तप से जीवन को सुशोभित रखना (९) चोरी - अनीति का कुछ भी काम मत लेना। (९) परस्त्री पर जरा भी नजर मत डालना। (१०) जाति का, कुल का अभिमान, या किसी भी प्रकार का मद न करना (११) ज्ञान-विद्या चतुराई से फूल न उठना (गर्व न करना) (१२) दुःखियों का उपहास मत करना (१३) दीन दुःखियों पर दया करना। (१४) देवों तथा गुरूजनों की पूजा करना (१५) सेवकों से मुँह न फिराना। (१६) मित्र-जनों का स्वागत करना। उनसे ठगाई न करना। (१७) संतोष रखना (१८) मन में नम्रतालघुता रखना (१९) दान में तत्पर रहना। (२०) किसी की भी निंदा मत करना, बल्कि (२१) दूसरे के गुण ग्रहण करना (२२) अपनी प्रशंसा-आत्मश्लाघा - मत करना (२३) सदा गुणरत्नों के प्रति आदर रखते हुए उनको उपार्जित करने में
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