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अतः दानादि धर्म करना जितना आवश्यक है, देव-दर्शन-पूजा, व्रत-नियमसामायिक, तपस्या आदि जितने जरूरी है उतना ही और ऐसाही विषय-कषाय का त्याग जरूरी है।
यदि यह त्याग न किया जाय तो विषय-कषाय की रमणता भयानक सिद्ध होगी। आचार्य आर्य-मंगु महान् प्रभावक और संयमी थे फिर भी आहार और रस (स्वाद) के विषय की रमणता ने उन्हें देवलोक की दुर्गति समान यक्ष-योनि में फेंक दिया।
अग्निशर्मा ने लाखों पूर्व के मासक्षमण की घोर तपस्या की थी तो भी (१) उसकी आहार - संज्ञा भभक उठी (२) अहं आहत हुआ और विषय-कषाय सुलगाया तो परिणाम-स्वरूप भवोभव में काले पाप करनेवाला और अनंत संसार का उपार्जन करनेवाला बना।
धर्म करना तो अच्छा भी लगता है परन्तु इन्द्रियों के विषय सुखों पर जहर नहीं बरसाना है । क्रोधादि कषायों को प्राणघातक नहीं मानना है तब उनसे डरने और बचने का प्रयत्न करने की तो बात ही क्या ? यह नहीं है तो तैर जाना - उद्धार होना - कहाँ रास्ते में पड़ा है ? जैसे धर्म अच्छा लगता है, ऐसे विषय-कषाय अच्छे नहीं लगने चहिए। उन्हें नापसन्द - अप्रिय बनाने के लिए ही नाना प्रकार के व्रत नियम और जिनभक्ति - गुरू-सत्संग तथा अनेक आचार-अनुष्ठान हैं। उनको अपनाकर भी विषय-कषाय का त्याग करते रहना है !
आचार्य धर्मनन्दन महाराज नरक-गति के भयानक दुःखों का वर्णन करके तिर्यंच मनुष्य - देवगति के दुःखों का वर्णन करते है सो अन्य अवसर पर प्रकाशित करने का तय करके कथा-भाग आगे चलाते हैं ।
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