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________________ लोहा डालते हैं, जिससे भयानक ढंग से जलते पिघलते हुए वे असीम वेदना भोगते | वैतरणी नदी : वहाँ से ये जीव चारों दिशाओं में भागते हैं और आगे वैतरणी नदी को देखते हैं । उसे शीतल जल से भरी समझकर ठंडक के लिए उस ओर दौड़ लगाते हैं; वह नदी तो पिघले हुए खौलते हुए गरम आग जैसे तांबे-सीसे-पू के द्रव से भरी होती है । फिर इन मूढ़ जीवों का पीछा करते हुए वे यमदूत दौडते आते हैं । वे जोर से चिल्लाते होते हैं, “हत्या करो, मारो, काटो, छेद डालो, बींघ डालो" उससे बचने के लिए भागते हुए वे जीव वैतरणी को दाह मिटानेवाली समझकर शीतलता पाने और यमदूतों के वार से बचने के लिए नदी में कूद पडते हैं, उसमें वे समूचे जल जाते हैं । और नदी के प्रवाह में बह जाते हैं । बाहर निकलना तो बहुत चाहते हैं, परन्तु मानो गोंद की कीच में या शिलाजित के बीच फंसे हो इस तरह बिल्कुल बाहर नहीं निकल सकते | उसमें तपे हुए तांबे-रांगे (सीसे)-पू (रसी) के द्रव में अपरंपार आग उठी है, अतः बाहर निकलने की कोशिश करते हैं, करुण विलाप करते हैं और कितने ही समय तक इस तरह बहते हुए जल जल कर मुश्किल से किनारे आने पर बाहर निकल कर उस दाह से बचने दौड़ते हैं। नरकगति की पीडा का विचार कीजिये । यह कल्पना नहीं है हाँ! सर्वज्ञ भगवान् को झूठ बोलने की कोई वज़ह नहीं है | और यह उनकी कही हुई सच्ची हकीकत है; और वह आजभी वहाँ जारी है । | अग्निमय नदी-रेती : वैतरणी नदी में से ज्यों त्यों बाहर निकले हुए वे जीव किनारे की रेती को ठंडी मान कर उस में लेटने जाते हैं, परन्तु वह भडभुंजे की सुपारी दूंजने के लिए तपाई हुई रेती से भी अनन्तगुनी गरम होती है । वे बेचारे उसमें जल कर सुपारी की तरह भुन कर खाक जैसे होने लगते हैं | | यहीं की नजाकत भारी पडेगी : सोचना जरुरी है कि यहाँ मनुष्य के जन्म में गर्मी के मौसम में गर्मी से बचने के लिए अनेक प्रकार के ऊधम करता है, ठंडक का शौकीन जहाँ-तहाँ ठंडक की खोज में फिरता है, चौबीसों घंटे बिजली के पंखे या एअर-कंडीशन्ड कमरे आदि का आग्रह रखता है, उसकी क्या हालत होगी ऐसे नरकस्थल में ? कुदरत यानी कर्मसत्ता मानो यह कह रही है कि, 'हे जीव ! जिन अनिष्ट विषयों से तुझे द्वेष हो, ऐसे भयंकर अनिष्ट में तुझे ले जाकर पटक दूँ , और इन मन पसंद विषयों १७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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