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संसार के प्रति वे वैराग्य उत्पन्न करवाते हैं। __“हे नरेन्द्र ! तुम देखो कि दुनिया में आखेटक शिकारी कितने निर्दय होते हैं ? मछुआरे, जल्लाद, (गले में फाँसी का फंदा डालनेवाले), कसाई, गावों में डाका डालनेवाले, सार्थ-कारवाँ को मारनेवाले, तीर मारनेवाले, गोलंदाजी करनेवाले, माँसाहारी....कैसे कैसे अधमाधम पाप करते हैं ?" __"तो धन के लोभी वन में कैसा दावानल लगा देते हैं ? जमीन कैसी खोद डालते हैं ? पानी के कैसे बाँध बाँधते हैं ? धातुओं को कैसा फूंकते हैं । वनस्पतियों को कैसे कुचलकर लौंदा बना देते हैं ? - दूसरे भी कई जीव कैसे कैसे महारंभ कर के जीव-हिंसा करने में जरा भी संकोच या बेचैनी का अनुभव नहीं करते ! कैसे परिग्रह के पीछे पड़े रहते हैं।
ये बेचारे केवल पाप-कर्दम में फँस कर खूब-खूब क्रोध-मान-माया-लोभ-मोह का पोषण करते रहते हैं । जिस पर उन्हें इसका कोई पश्चाताप भी नहीं, और न दुष्कृत की निंदा ! फिर वे पाप से पीछे क्यों हटें ? जीवन में कभी किसी गुरु के सामने अपने पाप का प्रकटीकरण भी नहीं और न पाप-त्याग के कोई व्रत-नियम ! क्या दिन क्या रात-बस एक ही धुन कि मनमाना खाऊँ, किसी भी तरह से धन लाऊँ,
और निरंकुश रागरंग मनाऊँ । इस तरह जीवन मात्र पापों से ही व्याप्त । __"हे सुबुद्ध ! खूबी तो यह कि ऐसे भयानक पापों में भी कुछ अनुचित मानने की तो बात ही नहीं । ऊपर से उलटा ऐसा मानते हैं कि 'यह हमारा प्रामाणिक कुलाचार है ।' अथवा 'ब्रह्माजीने ही स्वयं हमारे लिए ऐसी आजीविका की व्यवस्था की है ।' ऐसे भीषण हिंसादि पापों के प्रति कोई घृणा-संकोच-संताप नहीं । उलटे पापों को धर्म-कुलधर्म के रुप में मानकर दूसरों को भी जीवन-निर्वाह के तौर पर इनकी शिक्षा देते हैं ! पाप की कैसी देशव्यापी और कालव्यापी स्थिति है ? ___ "हे राजन् ! इन बेचारे मूढ़ जीवों को ज्ञात नहीं कि इन के कटुफल के रुप में कैसी घोरातिघोर दुःख-पीडा भरी नरक में असंख्य वर्षों तक यातना भोगनी पडेगी। जीव ने जिन प्रिया-पुत्रादि के लिए ऐसे भयंकर पाप किये वे सब तो इस मरे हुए जीव को नदी किनारे जला कर नदी में नहा कर घर जाएँगे जबकि इस जीव को अकेले ही दुःख की भट्टी में सिकना पड़ेगा | अरे ! जलाने के बाद की बात कहाँ ? जलाने से पहले ही यहाँ से प्राण पूर्ण होते ही (अंतिम सांस छूटते ही) सगे-सम्बन्धियों के सामने ही इन पापों के (पापों से उत्पन्न) कर्म जीव को उठा कर सीधे नरक में पटक देते हैं ।
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