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| १६. नरक गति के दुःख ।
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वे नरकें कैसी हैं ? 'कुवलयमाला' के रचयिता आचार्य पुंगव श्री उद्योतनसूरिजी महाराज यहाँ से महर्षि धर्मनंदन महाराज द्वारा वर्णित चार गतियों के दुःख का विस्तृत वर्णन करते हैं । उसे हम संक्षेप में देखें।
नरक में उत्पत्ति कैसी....?.... महर्षि तब राजा पुरंदरदत्त से कहते हैं,....'हे नृपति ! यहाँ घोर पाप कर के जीव जिस नरक में जाता है वह कैसी है सो सुनो! नरक में नरक-वास घोर अंधकार से भरे और कहीं तो अत्यन्त उष्ण तो कहीं अत्यन्त ठंडे होते हैं, और उनमें मेदमज्जा-चरबी-रक्त-मांस-पू आदि बीभत्स पदार्थ सब जगह बिखरे पडे होते हैं | वज्र के समान मुखवाले पक्षी जो नरक के जीवों को अपनी तीक्ष्ण चोंच भोंकते (चुभाते) रहते हैं, वे भी बड़ी संख्या में भरे होते हैं। वहाँ जीवों को सँकरी और नलीवाले मुँह की कुंभी में पकाया जाता है । सीझना पडता है । उसमें से जीव बाहर कैसे निकले ? परमाधामी देव उसके शरीर को कोंच कोंच कर छेद छेद कर उसके टुकडे बाहर निकालते हैं। बाहर निकलने की ही देर कि पास ही भयंकर सिंह-बाघ-शिकारी कुत्ते उसे फाड़ खाने को तैयार रहते हैं ।
नरक में उबलते हुए रस-करवत-आग-यत्र :
इन पशुओं द्वारा फाड़े और चबाये जाने के बाद उसमें से छूटते ही तुरन्त परमाधामी देव उसे तांबे-सीसे के खौलते हुए अति उष्ण रस में डाल कर उबालते हैं । फिर बाहर निकाल कर तेज दातों वाली आरी (करवत) से उसे चीरते हैं । यंत्र में पेरते हैं | भट्टी लपलपाती लपटों में डाल कर भूनते हैं । वे नरकपाल देव जगत में जो जो दुःख गिने जायँ वे वे दुःख खडे कर के इन नारकीय जीवों को सताते हैं | मूत्र-रसी-पू-श्लेष्म आदि अत्यंत दुर्गन्धमय बीभत्स पदार्थों से भरी कुंभी (सुराही)में जीवों को डाल देते हैं । उसमें उन बेचारे जीवों के हाथ-पैर आदि गात्र गलने लगते हैं । फिर वे अंग जब बिकसने लगते हैं तब उस सँकरी कुंभी में समाते नहीं, अतः ज्यों ही मुँह बाहर निकालते हैं त्योंही वे परमाधामी देव ‘ऐ ! मारो! काटो ! छेदो-बींधो-फाडो, पकडो-इस पापी को छोडो मत !' ऐसा कहते कहते वे उन नरक-जीवों पर भाले-तलवार-बर्डी आदि के साथ टूट पडते हैं । खड़ग से काट
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