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करने पर समझमें आ सकती है । दुनिया में हम देखते हैं कि जीव भुख के मारे
और विषय-तृषा तथा धन लालसा के मारे कैसे कैसे पाप नहीं करते? और फिर स्वयं को भी कहाँ पाप नहीं करने पडते ? फिर यहाँ शायद ऐसे इतने भयानक पाप न भी करने पड़ते हों; तो भी यहाँ स्थिर तो बैठे रहा नहीं जाता, अतः वहीं पर शायद कभी रौद्रध्यान की स्थिति मे दुर्गति का आयुष्य बाँध लिया गया हो तो मर कर इस संसार में दूसरी किसी स्थिति में रखे जाने पर जीव को न जाने कैसे कैसे भयंकर पाप करने पड़े ? यहाँ पर चाहे कम पापों के साथ ही सही, पर अकेली संसार की ही माया ममता रखी तो बाद में चल कर कौनसी अच्छी निष्पाप जीवन की स्थिति मिलने वाली है ? कहिये कि ज्यादह पापाचरण करवाने वाले जन्म मिलते है; तो ऐसे संसार को क्या करें? ऐसे उच्च मानवभव में आकर यदि पाप छोडने या कम करने का अवसर मिलता है, और फलतः भावी स्थिति शक्तिशाली निष्पाप बनायी जा सकती है तो फिर क्यों पापपूर्ण संसार पर मोह (ममता) रख कर पापों का पोषण किया करें ?
इस तरह विचार करने पर भी संसार पर से राग आस्था उठ जाए और वैराग्य जगमगा उठे ऐसी संभावना है । संसार में पापाचरण भला कहीं खोजना पडता है ? जीव जीव में यह प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। छिपकली बिल्ली की कैसी सतत पापलेश्या है ? भूखे सिंह बाघ भेडिये कैसे पाप करते हैं ? भूख की पीड़ा बढ़ जाने से अग्निशर्मा ने लाखों पूर्व के मासक्षमणों के साथ की समता खोकर राजा गुणसेन को भव भव में मारने की शत्रुता उर्जित की। त्रिपृष्ठ वासुदेव तीर्थंकर का जीव था तो भी और वहाँ विचरते हुए तीर्थंकर श्रेयांसनाथ भगवान् मिलने के बावजूद विषयतृष्णा और सत्ता के मद में बना रहा तो मरकर सातवीं नरक में गया । वहाँ क्रोध-कषाय के कैसे पाप ? फिर वहाँ से निकल कर सिंह हुआ । उसमें कैसे कैसे क्रूर हिंसा के पाप ?.
पापपूर्ण जीवन से जिसे संपूर्ण घृणा हो, और उसमें जिसे आत्मा की महा-विटंबना दिखाई देती हो,उसे स्वतः ऐसा लगेगा कि ये पाप करानेवाला संसार ही मूलतः खतरनाक है । संसार न हो तो जीव को किसलिए पाप करने पड़ें ? अर्थात् संसार के प्रति स्वभावतः घृणा उत्पन्न होगी, वैराग्य होगा ।
महर्षि यही कह रहे है कि :__“जीवों को चारों गतियों में (१) जो दुःख हैं, और भूख-प्यास तथा तृष्णा के मारे विषय-सुख-स्वाद के लंपट जीव (२) जो पाप करते हैं वे जो लक्ष में-ध्यान में -आ तो भूख आदि के ऐसे दुःखभरे और हिंसादि पापों को उत्तेजित करनेवाले
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