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उसे शाबाशी दे । फिर वह इस शाबाशी से उत्साहित होकर अन्यत्र और बेइमानी कर के अधिक रकम ले आवे और उसमें से कुछ रकम व्यापार का नफा कह कर सेठ को दे तो क्या सेठ के लिए वह मुनीम सुखरूप माना जाएगा? दोनों उदाहरणों का उत्तर नही में है क्यों कि इन में तो उस स्त्री-वस्तु अथवा मुनीम-वस्तु के आगे पीछे के रंग ही भयानक हैं।
बस इसी तरह से इस जगत के पदार्थ ऐसे खतरनाक रंग करते हैं, और उपयुक्त पति और सेठ की तरह अपने जी के लिए भावी भयंकर दुःखमय खतरा खडा कर देते हैं । अतः बीच की अवस्था का आनन्द कोई वास्तविक सुख नहीं कहा जा सकता। और ऐसा सुख दिखानेवाले विषय भी सुखस्वरूप नहीं माने जा सकते। ये विषय आ आ कर तो जीव के पुण्य को खत्म कर देते हैं । क्योंकि पुण्य से उन विषयों की प्राप्ति होती है । अतः उतना पुण्य समाप्त हो जाता है। साथ ही मूढ जीव के हाथों भरपूर हिंसादि पाप और रागादि दोषों का आचरण करवा कर खूब खूब पाप इकट्टे करते हैं। इस तरह पुण्य बेच बेच कर अकेले पाप खरीदना पापकर्मों की भर्ती करना ही हो पाता है - इसमें सुखरूपता किस तरह ? उक्त पति को उस स्त्री से किसी रोज धक्का लगे - या हानि पहोंचे, उक्त सेठ को किसी दिन सेठ के नाम उधार देनेवाले आकर तकाजा करें तब पता चले कि 'हाय ! हाय ! इस स्त्री को – इस मुनीम को मैंने सुख-स्वरूप माना सो मैंने बड़ी भयानक भूल की । निरे भ्रम में ही पड़ गया।' संसारी रागान्ध जीव की ऐसी हालत होती है। कर्म की मार पड़ती है तब विलाप की सीमा नहीं रहती। भुतहा बंगला __इस तरह माने हुए सांसारिक सुख में यदि जीव की अपनी तथा सम्बन्धित विषय की आगेपीछे की स्थिति को देखा और सोचा जाय तो विषय किसी तरह के सुखरूप नहीं लगेंगे, दुःखरूप ही लगेंगे । अनजाने में भूतह बंगला रास्ते पर खरीदा। थोडा समय उसमें निवास का सुख भोगा; परन्तु बादमें उसमें रहते भूत ने पत्नी या बच्चों को पीड़ा देना शुरू किया; और यह पता चला कि ये पीडाएँ भूत की दी हुई हैं, तब क्या वह बंगला सुखमय लगेगा? नहीं, क्यों कि उसकी पूर्वापर स्थिति खराब है अतः दुःखरूप ही लगेगा। इसी तरह संसार के विषय पूर्वापर स्थिति की दृष्टि से हिसाब से दुःख रूप हैं । ऐसे संसार से वैराग्य क्यों न हो ? (iii) पाप करने पड़ते हैं - यह वैराग्य का कारण है
महर्षि ने आगे फरमाया कि केवल दुःख की ही वजह से नहीं अपितु संसार के पापों की वज़ह से भी संसार पर वैराग्य हो जा सकता है | यह बात भी विचार
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