SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होता है । दोनों आगे बढ़ कर आचार्य भगवंत के निकट पहुँचते हैं | जाने पर मंत्री स्तुति करता है_ 'आठ कर्मरूपी पर्वतों को भेदने में समर्थ हे वज्र तुल्य । हे संसार-समुद्र को पार करने के लिए सुगठित जहाज के समान। हे दुर्जय काम को जीतने वाले । हे क्षमा के निधान । हे घोर परीषहों पर विजय द्वारा 'जयवंत शब्द को प्राप्त करनेवाले । हे भव्य जीवों रूपी कुमुदों के वन को विकस्वर बनानेवाले चन्द्र । और अज्ञान के महातिमिर को नष्ट करने वाले सूर्यसम भगवान् । आप की जय हो। आपही हमारे लिए शरण हैं, नाथ हैं, बन्धु हैं, मित्र हैं, जो कि जीवों को जिनवचन बताकर सर्व सुख के कारण बनते हैं।" 'जय सरणं तुम चिय, तं नाहो बंधवो तुमं चेव, जो सवसुक्खमूलं जिणवयण देसी सत्ताणं ।' स्तुति कर के महर्षि को तीन प्रदक्षिणाएँ देता है । उसके बाद मंत्री उनके पैरों पड़ कर प्रणाम करता है, तो राजा भी प्रणाम करता है । महर्षि कहते हैं - 'धर्मलाभ! स्वागत है आपका, बैठिये ।" और भी कई उत्तम जीव और कार्पटिक अर्थात अंगपर एक ही कपडा लपेट कर तीर्थयात्रादि को निकले हुए योगियों जैसे वहाँ आचार्य भगवान के पास आये हुए थे । वें भी नमस्कार करके बैठे । आचार्य भगवान लोकाचार की दृष्टि से राजा के शरीर के समाचार पूछते हैं क्यों, काया कुशल है न ? राजा, कहता है, 'प्रभु आज आपके चरणों के दर्शनों से ।' राजा विचार करता है, 'अहा ! इन आचार्य भगवान का रूप असाधारण दिखाई देता है ! लावण्य भी असामान्य है ! जवानी का जोश अनुपम दिखाई देता है। ये महाविद्याओं के धर्ता होंगे | चलो, इन से जरा पूछ लूँ कि ऐसी अत्यन्त सुखद परिस्थितियों के बावजद आपको संसार के प्रति वैराग्य होने का क्या कारण है? १६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy