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________________ १५. संसार पर वैराग्य के तीन कारण आचार्य महाराज चार ज्ञानों के स्वामी हैं । सामने वाले के मन की बात भी जानते हैं, अतः बिना पूछे ही राजा से तुरंत कहते हैं- 'भाग्यशाली ! तुम मेरे वैराग्य का कारण पूछना चाहते हो ? किन्तु ( १ ) एत्थ नरनाह न वरं चाउगइ संसार-सागरे - घोरे; वेरग्ग कारणं चिय सुलहं परमत्यरूवेण ।' (२) जं जं जायम्मि मण्णइ सुहरूवं रायमोहिओ लोओ; तं तं सयलं दुक्खं भणन्ति परिणाय - परयत्था । ( ३ ) तिन्हा - छुहा - किलन्ता विसय सुहासाय- मोहिआ जीवा; जं चिय करेंति पावं, तं चिय णाणीण वेरग्गं । (१) हे राजन! चार गतिमय इस घोर संसार में परमार्थ से वस्तु स्वरूप में देखे तो वैराग्य के कारण ही सुलभ हैं । (२) राग से मोहित मनवाले लोग इस जगत में जिस जिस वस्तु को सुख स्वरूप मानते है वह वह सब कुछ दुःखरूप है ऐसा परमार्थ के ज्ञाताओं का कथन है | (३) विषय - तृषा तथा क्षुधा (भूख) से पीड़ित प्राणी विषय-सुख के आस्वाद से मूढ बन कर जो पाप करते हैं वे ही ज्ञानी - अर्थात् समझदार के वैराग्य का कारण बनते हैं । - (i) चार गतिमय संसार वैराग्य का हेतु है: (१) महर्षि वैराग्य का मूल बताते हैं । प्रथम तो भटकने की चार गतियों वाला यह संसार ही भयंकर है। किसी गति में कोई भी जीव स्थिर है ही नहीं | किसी एक गति में कितना ही सुख देखने मिला हो परन्तु वहाँ से मरकर दूसरी गतियों में भटकना ही पड़ता है, और गतियों में सब जगह कहाँ सुख की गठरियाँ बँधी रखी हैं ? स्पष्ट दिखाई देती ही है न विविध प्राणिवर्ग में दुःख की गठरियाँ । तो अधिकांशतः दुःख में ही सेंकने - भुननेवाली नरकादि सांसारिक गतियों में जीवों को भटकते ही रहना पड़ता है, वह संसार कितना भयानक है ? प्रश्न उठता है प्रo 'परन्तु उस में थोडा सा भी सुखास्वाद तो मिलता है न ? इसका जवाब(ii) सब कुछ जो दुःखरूप है वह वैराग्य हेतु है: उ० सुख कहाँ है ? जो जो वस्तु सुख-स्वरूप लगती है सो सो सब कुछ ही १६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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