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क्षमागुण से गुरू थे - अर्थात् भारी थे । फलतः ऐसे थे जो द्वेष-क्रोधादि की ओर खिंच न जायँ । तदुपरान्त उपसर्ग - उपद्रव को सहन करें ऐसे थे । मानो उन मुनि रूपी वृक्षों पर ये फल थे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति रूप, अर्थात विचार - वाणी - व्यवहार - असत् बिल्कुल बन्द और सत् विचार आणि बहुल प्रमाण में जारी ये मानो पुष्प थे । उसी तरह शील के १८००० अंग ये मानो पत्ते थे । ऐसे मुनिजन वहाँ उन मेंसे कुछ जीव-अजीव के भेद वगैरह विस्तार बतानेवाले शास्त्र पढ़ रहे हैं; कार्याकार्य-आचार बतानेवाले आचारांग सूत्र पर विचार कर रहे हैं । कोई स्वसिद्धान्त तथा परसिद्धान्त का ज्ञान कराने वाले सूयगडांग सूत्र का परावर्तन कर रहे हैं। तो कोई 'ठाणांग' कोई 'समवायांग' 'भगवती' - यावत् कोई कोई बारहवें अंग दृष्टिवाद का स्वाध्याय कर रहे हैं ।
मुनि-परिवार विशाल है; अतः कई प्रज्ञापना आदि सूत्रों, कई प्रत्येक बुद्धस्वयंबुद्ध के रचे हुए शास्त्रों, तो कुछ और मुनि प्रमाण शास्त्रों के स्वाध्याय में संलग्न हैं। और भी, वहाँ कोईक मुनि धर्म-कथक है, कई वादी हैं, कई निमित्त-मंत्र विद्या विज्ञान के जानकार हैं | कुछ मुनि जिन-वचन के समर्थ सिद्धान्तों का पुनरावर्तन चिंतन मनन करते हुए बैठे हैं । तो कुछ ऐसे तपस्वी हैं जिन्होंने अपने शरीर को अस्थिपंजर सा बना दिया है । तो कुछ मुनि भिक्षु-प्रतिमा के कठोर अभिग्रहों का पालन कर रहे हैं । कुछ तो वीरासन मुद्रा में और कुछ अन्य पद्मासन मुद्रा में ध्यान धर रहे हैं।
इन सब के बीच मति - श्रुत अवधि मनः पर्याय इन चार ज्ञानों के धर्ता स्वामी धर्मनन्दन नामक आचार्य भगवान नक्षत्रों के बीच पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र की तरह शोभित विराजमान हैं।
यह देखकर राजा पूछता है - हे वासव मंत्री! ये सब कौन है ?
मंत्री उत्तर देता है - ‘महाराज ! ये तो त्रिलोक के वंदनीय, देवों द्वारा भी वंदन किये जाने योग्य महामुनि हैं।
'तो इन सब के मध्य में राजा के समान वे कौन हैं ? ।
'महाराज ! संसार रूपी अटवी में जिन जीवों को सद्गति के दिशा विभाग का ज्ञान नहीं है, जो जीव मिथ्यामतियों के मार्ग पर चलते हैं, ऐसे जीवों को मोक्ष नगर के पथ पर लगानेवाले वे धर्मनन्दन नामक आचार्य भगवान है । वे देवों के भी वन्दनीय हैं। चलिये, हम उनसे धर्म-अधर्म के विषय में कुछ पूछे ।"
यों राजा भी एकदम जिज्ञासा रहित नहीं था । अतः मंत्री की बात से सहमत
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