________________
| समकिती का हृदयः
मंत्री का सम्यक्त्व गुरु प्राप्त न होने पर कितना चिंतित कराता है ! गुरु का आगमन हुआ था तो मानो घेबरभरी गाड़ी मिल गयी, मानो बड़ा खजाना मिल गया । अब उनके दर्शन न होने के समाचार मिलने पर मानों आँखे ही छीन ली गयी । वह क्या देखता है गुरू के मिलन में ? घरमें रहकर अलसित बन जाने वाली धर्म भावना का नवपल्लवित होना । उससे परलोक के खाते में पुण्यानुबन्धी पुण्य की रकमें जमा कराना देखता है । मनमें यह गिनती चलती हो उसका हृदय गुरु के आगमन पर ऐसे नाच उठता है जैसे मेघ के आगमन पर मोर, और गुरु का विरह होने से खिन्न - उदास - निराश हो जाय यह स्वाभाविक है ।
मुनि कहाँ होते हैं ?
मंत्री को यह चिंता तो हुई, लेकिन शीघ्र ही मन को लगा कि, “अरे ! यह मैं क्या विचार करने लगा ? मुनिगण ऐसे जीवाकुल प्रदेश में कैसे रह सकते हैं ? यहाँ तो जहाँ देखो वहाँ झीना झीना बौर पत्ते और पराग बिखरा पड़ा है। ये सचित्त हैं, सजीव हैं । ऐसे स्थान पर रहना मुनियों को नहीं कल्पता ( उचित नहीं) अतः देखूँ तो सही इसके पीछेवाली साफ जगह में संभव है कि आचार्य भगवन्त सपरिवार विराजमान हों ।
चतुराई से राजा को आकर्षित करता है :
ऐसा होते हुए भी वह राजा को इस प्रयोजन की गंध भी नहीं आने देना चाहता । अतः नया ही प्रश्न उठा कर कहता है
... महाराज ! आप को याद है ? कुमार अवस्था में आपने एक अशोक वृक्ष रोपा था। 'अब तक वह अच्छा खासा ऊगा होगा न ?
राजाने कहा - "हाँ, हाँ । अच्छी याद दिलाई; चलो पीछे जाकर उसकी तलाश करे " बस, सब के सब उस ओर चल पड़े ।
आत्म- हित चिंतक की चतुराई यह है कि सामनेवाले को ऐसे युक्तिपूर्वक चलाए कि चह्न अपने आप हित के उपाय की ओर मुड़े !
पुत्रों के लिए ऐसा बहुत कुछ किया जा सकता है । कृष्ण वासुदेव को उपहार में एक मूल्यवान् घोड़ा मिला । वहा उपस्थित शांब और पालक ने कहा, "यह अश्व मुझे दीजिये, मुझे दीजिये ।" कृष्णजी ने कहा कल सुबह श्री नेमिनाथ भगवान् को तुम में से जो पहले भावपूर्वक वन्दन करेगा उसे यह इनाम
"L
१६१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org