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नहीं खरीदना । धार्मिक पाठशाला की फीस नहीं भरना । घर पर धार्मिक शिक्षक का ट्यूशन नहीं रखना; धार्मिक पाठशाला के फंड में भी नहीं देना । ऐसा क्यों ? धर्म की ऐसी कद्र - कीमत नहीं मानते, जैसी पैसे की मानते हैं । फिर भी ऐसा मानते हो न कि हृदय में सम्यग्दर्शन जगमगा रहा है ?
राजा को उद्यान में ले जाने की चतुराई :
सम्यग्दर्शन को महामूल्यवान माननेवाला वासव मंत्री माली को आचार्य भगवंत के शुभागमन की बधाई देने के उपलक्ष में पचास हजार दीनार दिलवा देता है । तत्पश्चात पूजा का कार्य निपटा कर वह आम का बौर (आम्र-मंजरी) लेकर राजा के पास जाता है । देखिये, राजा को जिन वचन की ओर आकर्षित करने के लिए कैसी चतुराई से वसन्त का निमित्त पकड़ लेता है ।
राजा को आम का बौर देते हुए कहता है- 'महाराज ! आपकी वसन्त लक्ष्मी ने अपनी दूती के तौर पर यह आम्र-मंजरी भेजी है - इसे स्वीकार करें ।”
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राजा उसे सहर्ष स्वीकार कर कहता है- 'वाह ! क्या सब को आनन्द देनेवाली वसन्त ऋतु आ गयी ? चलो, उसकी मनोहरता के दर्शन करने चलें ।
मंत्री ने कहा " जैसी आपकी आज्ञा । पधारिये ।'
आचार्य के न दीखने से मंत्री को चिन्ता
बस ! राजा और मंत्री आदि उद्यान की ओर चले। वहाँ विविध वृक्षों, पौंधों, -बूट आदि की शोभा निहारते हुए घूम रहे हैं; परन्तु मंत्री को यह सब निहारने में कोई रूचि नहीं है, उसे आचार्य कहाँ हैं - यह देखने की लगन लगी है, परन्तु उसे वहाँ आचार्य भगवन्त या उनके साधु- कोई दिखाई नहीं देते। अतः मन में चिंतित हो जाता है कि, 'अरे! यह क्या हो गया ? माली झूठ तो नहीं कह सकता। तब क्या आचार्य भगवंत सूत्र - अर्थ पोरिसी करके अन्यत्र विहार कर गये ? अगर ऐसा हुआ है तो ठीक नहीं हुआ । मैं भी उनके दर्शन से वंचित रहा और राजा को जो प्राप्त करवाना चाहता था वह भी रह गया । हाय रे वक्र विधाता ! तूने यह क्या किया ? गुरू आगमन के समाचार का अमृत रस कानों को पिलाकर गुरू के दर्शन नहीं करवाये ? यह तो तूने मानों एक ओर बड़ा खजाना बता कर दूसरी ओर आँखे ही निकाल लीं ।
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