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________________ कर ने एवं धन की मूर्छा काटने के लिए प्राप्त हुए हैं । लक्ष्मी की मूर्छा और विषयों का लालच तो भव में भटकाने वाले हैं । देव गुरू की भक्ति का आलंबन मिला है सो उस निमित्त को पाकर तो लक्ष्मी को कंकड मानने और देव गुरू को रत्न समझने का सुनहरा अवसर मिला है | ऐ नादान ! ऐसा कद्रदानी का निमित्त मिलने पर भी यदि तू इनकी कद्र न करे और लक्ष्मी को तुच्छ न गिने तो बिना निमित्त के तो तू क्या कर सकेगा? बड़े बड़े बधावनी-दान, गुरू-प्रवेश के खर्च, उत्तम पूजा - उत्सव - यात्रादि होने के आनंद जन्म दान - वगैरह का रहस्य यह है कि 'ऐसे मौके पर मेरे मन में धन का महत्त्व घट कर, देव-गुरू - धर्म का अतुल महत्त्व स्थापित हो जाय; और लक्ष्मी कंकड -तुल्य भासित हो जिस से भवान्तर में इसकी वासना मुझे इसी की प्राप्ति करावे, मुझसे ऐसाही करावे ।" सिद्धगिरि पर संघ ले आने का लाभ तो राजा कुमारपाल ने लिया; और केवल उसकी इन्द्रमाला पहनने के लाभ की बोली (चढावे) में महुवा का जगडू श्रावक क्यों सवा करोड़ रूपये बोला? उसके पीछे यही एक हेतु है कि 'गुरू कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य महाराज श्री हेमचन्द्र सूरीश्वरजी तथा विशाल साधु-साध्वी समुदाय, सामंत राजागण, बड़े करोड़पति सेठ और राजा कुमारपाल - स्वयं भी, - इन सबकी उपस्थिति में और आदीश्वर भगवान के सम्मुख इन्द्रमाला पहनने का अति दुर्लभ पवित्र सुकृत करने को मिलता है । तो उसके महामूल्यको हृदय में घर कर लेने दों, और सवा करोड़ रूपये जैसी बड़ी धन राशि की तुच्छता (अपदार्थता) हृदय में अंकित हो जाय। यह तमन्ना थी, सो कैसे पूर्ण हो? इतना धन फेंक देने से...। बस हृदय में धर्म का उच्चमूल्य और धन की तुच्छता अचूक जम जाय तो निहाल हो गये, समझो । - इसके विपरीत 'देव-गुरु-धर्म तो so So, साधारण कहे जायँ, और पैसा तो मूल्यवान् ऐसे नहीं उछाल दिया जाता; ऐसा जिनके हृदय में बस गया तो वे भी सुन्दर निमित्त की अवगणना करके निहाल तो नहीं, हाँ बेहाल हो गये । देव-गुरू के ही प्रभाव से उत्पन्न पूर्व के पुण्य - योग से पैसा मिला, परन्तु उसी पैसे पर देव-गुरु धर्म की अवगणना करते रहे! यह क्या कम दुर्दशा है? 'हाय पैसा! हाय पैसा!' का रटन करते रहे । यह कैसी बुरी हालत है ? इसी से 'मम्मण सेठ सातवी नरक में गया । भुक्खड चेहरा। लड़के को स्कूल - कॉलेज की शिक्षा देने के लिए पुस्तकों का खूब खर्च किया जाता है फीस भरी जाती है, ट्युशन रखे जाते हैं, परन्तु धार्मिक पढ़ाने के लिए कोई खर्च नहीं ? हर वर्ष नयी धार्मिक पुस्तके १५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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