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तब इसका शुभ समाचार लानेवाले को रामजी श्रावक ने क्या दिया ? चाबियों का गुच्छा फेंक कर उससे कहा, 'लो, इस में से कोई भी एक चाबी निकाल लो। इस चाबी का माल सब तुम्हें पुरस्कार में ।
वह बेचारा घोंचू, कि उसने बडी चाबी निकाली । फिर भी इस गुरू-भक्त को दया आयी कि 'बेचारा अज्ञानवश कम ले जारहा है' अतः उससे कहा - "अरे! देख - देख, अच्छी चाबी निकाल ।"
वह मूर्ख यह समझा कि सेठ को बड़ी चाबी से बहुत माल का जाना अखरता है, इसलिए मुझसे ऐसा कहते हैं । पर मैं तो हाथ में आने के बाद क्यों छोडूं ? ऐसा सोचकर अपनी लघुता मानो प्रकट करता हो - ऐसे गंभीर मुख रखकर कहता है - “सेठ जी ! मुझ गरीब के लिए तो यही ठीक है ।"
सेठ ने सोचा कि 'बेचारे का भाग्य ही ऐसा गरीब है तो ऐसे ही भले हो।' तुरन्त मुनिम को बुलाकर कह दिया कि 'इस चाबी के गोदाम का माल इसे बख्शीश में दे दो।'
चाबी काहे की थी? रस्सों के गोदाम की । वह बेचारा कहने लगा, 'श्रीमान् ! मैं इन रस्सों को लेकर क्या करूँ? तो सेठ ने बाजार के व्यापारियों को बुलाकर सारे रस्सों का मूल्यांकन करवाया । कितनी रकम हुई ? आपका क्या खयाल है ? रू. ५०० - १०००? जी नहीं ! ग्यारह लाख रूपये । तो क्या सेठ का दिल बैठ गया ? नहीं, प्रसन्न होकर इतनी रकम उसे नकद दिलवा दी।
क्या मूल्यवान् है ? रूपये या गुरू ? अधिक प्रिय कौन ? धन या देव-गुरू? मोक्ष मार्ग का प्रथम सोपान सम्यग् दर्शन लाओ तब यह समझ में आएगा । आप को तो ऐसा लगता है, 'देव-गुरू पर प्रेम रखें, उनकी सेवा करें परन्तु ऐसे बधाई आदिमें व्यर्थ पैसे क्यों बरबाद करना ? क्यों, ऐसा ही है न ? 'मामूली से थोडे फूल, वर्क आदि तो ठीक हैं, परन्तु बहुत सारे फूल सोने का वर्क - बादली जरी वगैरह में व्यर्थ पैसे क्यों खोना ?' ऐसा ही लगता है न ? गुरू का प्रवेश - स्वागत होता है, गहुँली की जाती है, आजकल बहुत महँगा मिलने वाला श्रीफल (नारियल)
और रूपया रखा जाता है सो तो देखा देखी करना पड़ता है इसीलिए या दिली उमंग से ? उसमें ऐसा ही लगता है न कि यह महँगा श्रीफल तो बेकार में भोजक ले जाएगा ।' गुरू से बढकर पैसे के प्रति कितनी श्रद्धा - प्रीति है ?
| वधावनी में बड़े दान का रहस्यः- |
मालूम नहीं है कि 'ये देवाधिदेव और गुरू प्राप्त हुए हैं सो धन का महत्व कम
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