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पेट-पूजा पत्नीपूजा - व्यापार पूजा - उनमें से एक भी पूजा के बिना नहीं चलता और जैनों में गिने जाने के बावूजद जिनेन्द्र देव की पूजा के बिना चले ? वासव मंत्री पूजा की तैयारी करता है ।
मंत्री के पास हाजिर :
वह ज्योंही अरिहंत प्रभु के मंदिर में जाने को होता है त्योंही बाहर के उद्यान का स्थावर नामक रखवाला - माली आ पहुँचता है। प्रणाम कर पुष्प करंडक आगे कर उसे खोलता है और उसमें से आम का बौर लेकर कहता है
‘देव, बधाई देता हूँ | वसन्त ऋतु का समय आ गया है । उसके चिह्न स्वरूप यह आम का बौर स्वीकार कीजिये । ऐसा कहकर मंत्री को देता है। देते देते कहता है " और भी एक बात है; हजूर ! धर्मनन्दन नामक आचार्य महाराज उद्यान में आये हुए हैं ।”
मंत्री का रोष:
यह सुनते ही मंत्री को क्रोध आ गया। बौर को श्वेत लता पर फेंकते हुए वह बोला - 'हे अनार्य ! आचारहीन ! सचमच तू स्थावर सो बराबर स्थावर पृथ्वीका - यादि के समान जड ही है जो तू मुझे बड़े आदरके साथ और प्रधानतः पहली बधाई दाहक वसन्तऋतु की देता है, उसके बाद ही शांति (ठंडक) देनेवाले आचार्य भगवान् के आगमन की बात कहता है, और वह भी अनादर के साथ और गौण रूप से ?”
कहाँ वसन्त और कहाँ आचार्य भगवान् ?
'वसन्त ऋतु तो खिली हुई मंजरी पर मँडराने वाले भौंरों की झंकार से कामवासना की आग सुलगाती है, जब कि पूज्य आचार्य भगवान तो कामाग्नि से पीडित भव्यात्माओं को जिनवचन - रूपी अमृतजल से कामाग्नि • शान्त कर ठंडक देते हैं । एक इस दुःखद संसार में भटकने की सुविधा कर देता है जबकि दूसरे भवभ्रमण को रोकने में सहायक हैं । फिर तुझे यह होश नहीं कि किस के बारे में पहले और बहुत आदरयुक्त बधाई दी जाय ?' सोचिये मंत्री के दिल के बारे में। मंत्री के दिल में सम्यग्दर्शन की घनीभूत जगमगाहट यहाँ कैसी प्रकट होती है ।
सम्यक्त्व जीव के हृदय में देव गुरू धर्म को प्रधान स्थान पर बैठाता है और दूसरा सब कुछ गौण स्थान पर ।
फिर वह देव- गुरू-धर्म के विषय में जरा भी अनुचित कथन को बरदाश्त नहीं कर सकता। सामना करने की शक्ति न हो तो भी हृदय में भारी संताप होता है ।
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