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________________ मंत्री के मन यह सब घास के फूल जितना भी मूल्यवान् नहीं - वजनदार नहीं; जब कि सम्यक्त्व, तत्त्वश्रद्धा तत्त्वदृष्टि मेरू से अधिक भारी । मतलब ? अज्ञानियों की मिथ्या कल्पनाएँ और कल्पित वस्तुएँ फूटी कौड़ी की भी नहीं, जरा भी मान्य नहीं, जब कि सर्वज्ञ जिन द्वारा कहे गये तत्त्व ही सच्चे, शंकारहित और स्वीकार्य हैं । तत्त्व जिस स्वरूप के हों उसी रीति से स्वीकार्य । मिसाल के तौर पर इनमें आनव हेय स्वरूप के हैं, तो उन आम्रवों को, अर्थात इन्द्रिय-विषयों, कषायों आदि को त्याज्य रूप में ही स्वीकार करना; सदा-सर्वदा यह चिंता रहा करे कि 'कब इनसे छुटकारा हो ?' सम्यग्दृष्टि को बहुत वजनदार समझने के कारण मंत्री के दिमाग पर उसी का मुख्य भार था; इसी लिए देवों की ( दिव्य ) समृद्धियाँ या बड़े इन्द्र की ठकुराई भी उसे अकिंचित्कर (वृथा) लगती थी । ऐसा महामूल्यवान सम्यक् - दर्शन प्राप्त होने का उसे अत्यन्त आनन्द था । इसीलिए उसे यह खटकता था कि 'राजा में सम्यक्त्त्व की झलक तक नहीं है ।' : मंत्री को राजा पुरंदरदत्त जिनवचन से सर्वथा अपरिचित होने का दुःख होने की वज़ह से वह इस दुःख को दूर करने का मौका ढूँढता था । इसी बीच एक बार ऐसा मौका मिल गया। हुआ यह कि मंत्री एक दिन सुबह आवश्यक क्रिया करने के पश्चात स्नान करके पूजा की तैयारी कर रहा था, पूजा के योग्य स्वच्छ वस्त्र परिधान कर अरिहंत परमात्मा की पूजा के लिए मंदिर की ओर मुड़ रहा था 1 राजा का महामात्य होते हुए भी उसकी धर्मचर्या देखने योग्य है । सम्यकत्त्व को वह एक कैसी अतुलनीय महान् निधि मिलने जैसा मानता है ! इसका नाप इस पर से निकलता है। सम्यक्त्व अर्थात् जिनेश्वर देव तथा जिन-वचन पर अगाध राग | वह यदि हो तो उसके पीछे कुछ तोल देना रहा या नहीं ? मुझे भगवान बहुत अच्छे लगते हैं, लेकिन मेरा धन और मेरी सुख-सुविधा भगवान से भी बढ़ कर अच्छी लगती ? ऐसा कैसे चलेगा ? इसीलिए तो भगवान की सेवा में और उनके वचनों की आराधना में धन तथा सुखसुविधा की बलि नहीं दी जाती । अन्यथा यदि भगवान अधिक प्रिय हों तो उनकी सेवा में उनसे कम प्रिय धनदौलत - सुखसुविधा आदि थोडा सा भी त्याग न किया जाय ? प्रभु की पूजा में ले जाने के लिए गाँठ का अपना कुछ भी नहीं ? प्रभु के संघ की सेवा में इनका कोई उपयोग नहीं करना ? जिनवाणी श्रवण करने की कोई गर्ज नही ? तिस पर भी मानना यह कि 'मुझ में सम्यक्त्व है, मुझे भगवान् और भगवान के वचन बहुत प्रिय है ।' १५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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