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________________ 'साधु होकर ऐसा नहीं किया जाता ।' उस देवने कहा, "मैं अकेला थोडे ही कर रहा हूँ। और भी कितने ही साधु ऐसे धंधे करते हैं । जैन शासन में सब चलता है ।' श्रेणिक ने क्रोध में आकर कहा, 'खबरदार ! ऐसा कहा तो । तू नालायक है इस लिए अन्य भी नालायक और सर्वज्ञ के शासन को झूठा बदनाम करता है ? छोड यह धंधा, नहीं तो उतार यह वेश, तुझे दूसरा अच्छा पेशा दिला दूँ ।' देवता ने देखा कि 'सर्वज्ञ के शासन पर श्रेणिक की श्रद्धा अद्भुत है। उसने उसी क्षण प्रकट होकर प्रशंसा की । वासव मंत्री का सम्यग्दर्शन कैसा है ? : वासवमंत्री इस सम्यग-दर्शन का धारक है । और मानता है कि क्या दानादि धर्म और क्या बड़ी मंत्र विद्याएँ और क्या शास्त्र - विज्ञान इन सब के मस्तक पर सम्यग्दर्शन मुकुटमणि है; सम्यक्त्व हो तभी इन सब का महत्त्व है, शोभा है, फलवत्ता है, अन्यथा ये दानादि सबकुछ हो लेकिन साथ में मिथ्यात्व, मिथ्यारूचि कल्पित तत्त्व की मान्यता हो, अज्ञान-मूढ धारणाएँ तथा मन की नादान वृत्तियाँ हों, ऐसी कक्षा हो तो ये दानादि - विद्या - विज्ञान सब कुरूप हैं, निष्फल हैं. इसी वजह से अभव्य जैसे जीव चारित्र का भी पालन करने के बावजूद संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं । 'कुवलयचन्द्र चरित्र' के स्रष्टा वासवमंत्री के सम्यकत्त्व - वासित हृदय की स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं - 'जिण - वयण - बाहिरं सो पडिवज्जइ कासकुसुम लहुययरं । मण्णइ सम्मद्दिठ्ठि मंदरभाराओ गरूययरं ॥' अर्थात् वह वासव मंत्री जिन वचन से बाह्य मतलब कि (i) जिनवचन ने नहीं कहा हो ऐसे कल्पित तत्त्व और कल्पित धर्म को अथवा (ii) जिनवचन द्वारा निषिद्ध वस्तु को घास पर उगे फूल से भी अधिक तुच्छ मानता है और सम्यग् दर्शन को मेरू पर्वत के भार से भी अधिक वजनदार मानता है । कैसी प्रभावशाली निर्मल हृदयपरिणति है ? जिन वचन से बाह्य मिथ्या मत हों या जगत की आत्महित घातक जड सम्पत्ति हो, विपुल लक्ष्मी या अन्य सुखद साधन पैदा करने वाले आरंभ समारंभ हों या ठाट बाट रुआब महत्त्वाकांक्षा हो, 11 Jain Education International १५४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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