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सम्यक्त्व के दो अंश :
अब देखिये कि सम्यग्दर्शन में ही इन दोनों के अंश मिलते हैं । सम्यक्त्व भवनिर्वेदमूलक है ।
भव-निर्वेद हो तो ही सम्यक्त्व प्राप्त होता है ।
भवनिर्वेद अर्थात संसार तथा संसार के विषयों एवं उनके लिए किये जाने वाले. क्रोधादि कषायों से घृणा - अरुचि - ग्लानि । मन को ऐसे लगता है कि 'मेरे जीव को पर-पदार्थों की यह कैसी विटंबना ? मैं तो अपने शुद्ध ज्ञानस्वरुप में शांति से स्नान करता रहूँ या इन पर वस्तुओं की बेगार किया करूँ ? भ्रम-वश मानता हूँ कि 'इस से मुझे सुख-आनन्द मिलता है । परन्तु यह कहाँ मेरे वश में है ? देखते ही देखते नष्ट हो जाते है । फिर इनमें तर- तमता है अतः प्राप्त पदार्थों से उच्च कोटि के पदार्थ बाहर दिखाई देने पर इनका आनन्द खत्म हो जाता है । और उनकी अभिलाषा जागती है । उपरांत ये भाग्य के अधीन होने के कारण भाग्य करे सो ही होता है, अतः ये मेरी इच्छा और प्रयत्न को खास मानते नहीं । तो फिर मेरे तो व्यर्थ ही तपना रहा न ? तब इनकी अभिलाषा और दौडधूप करूँ ही क्यों ? सारांश, कोई माल नहीं है संसार के इन विषयों में। उसी तरह कषायों में भी कोई सार नहीं है, क्योंकि इन्हें भी बदलते रहना पडता है । तिस पर इनमें हृदय स्वस्थ न रहकर उबलता रहता है । तो इस की बेगार करना और विह्वलता मोल लेना सो किस लिए?' इस तरह विषय और कषाय-स्वरुप संसार से नफरत हो, ग्लानि हो, आस्था न रहे इसे कहते हैं भव-निर्वेद |
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सम्यक्त्व (१) एक तो यह भव-निर्वेद माँगता है, और (२) दूसरे यथार्थ तत्त्व तथा मोक्षमार्ग की अचूक श्रद्धा की अपेक्षा रखता है और ये तो सर्वज्ञ के कहे हुए ही सच्चे होते हैं अतः सर्वज्ञ के वचनों पर और उन वचनों द्वारा प्ररुपित तत्त्वों एवं मोक्ष-मार्ग पर अटल श्रद्धा चाहिए। यह श्रद्धा हो तभी सर्वज्ञ के कहे अनुसार मोक्ष - मार्ग - चारित्र का यथार्थ पालन हृदय से होता है ।
श्रद्धा न हो तो (१) यथार्थ चारित्र हाथ आता ही नहीं; या (२) कभी आ जाय तो भी उसका बराबर पालन नहीं हो सकता, अथवा (३) बराबर पालन हो तो भी मोक्ष की इच्छा से नहीं बल्कि किसी संसारिक सुख के इरादे से हो; इन में से एक भी बात से मोक्ष नहीं मिल सकता, अतः
मोक्ष के लिए निराशंस भाव से सम्यक् चारित्र का मोक्षार्थ-यथार्थ पालन ज़रुरी
है ।
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