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________________ हृदय हो तो बात अलग है, परन्तु मानव हृदय की कैसी चाल ? कौनसी रीति? कैसी वृत्तियाँ रखनी चाहिए ? वासव मंत्री राजा को सहायता सहानुभुति एवं बहुमूल्य सलाह देनेवाला है । अतः राजा उसे मित्र के समान भी मानता है। मंत्री को केवल एक ही बात का दुःख है कि 'राजा जिनवचन से जरा भी परिचित नहीं है ।' स्वयं चतुर होते हुए भी राजा के सामने जैन तत्त्व प्रस्तुत करने का मौका न पाने के कारण लाचार था, उसके मन को यह व्यथा सताती रहती कि 'राजा मानव-भव में अवश्य करने योग्य मुख्य कमाई से वंचित रहता है ।' समकिती को कौन सा दुःख होता है ? : मंत्री को यह दुःख क्यों ? कारण यह है कि वह सम्यग्दृष्टि था और सम्यग्दर्शन को इतनी अधिक उच्च वस्तु मानता था कि विद्या, विज्ञान और दानादि धर्मों में सम्यक्त्व को चुडामणि तुल्य गिनता था । चूँ कि उसने जैन तत्त्व के रहस्य को ग्रहण किया है इस लिए उसे यह समझ है कि विद्या, बल, विज्ञान भी बड़े सही और दानादि धर्म भी सही, परन्तु साथ में यदि सम्यग्दर्शन है, तो ही ये शोभित होते हैं और अमोघ फलदाता भी बनते हैं । ऐसा क्यों ? 'दानादिक किरिया नवि दीए समकित विण शिव शर्म ।' : शास्त्र के आधार पर उपाध्यायजी महाराज का यह कथन है । सम्यक्त्व के बिना दानादि क्रिया मोक्ष-सुख नहीं देती । इस की वजह यह कि मोक्ष-सुख पाने के लिए, सम्यक् चारित्र चाहिए और उस की प्राप्ति सम्यग्दर्शन के बगैर नहीं हो सकती । दानादि क्रियाएँ सम्यक् चारित्र की ओर ले जानेवाली है, पर सम्यग्दर्शन हो तो ही । पूछिये'सम्यकत्व के बिना सम्यक् चारित्र क्यों नहीं ?' कारण स्पष्ट है-सम्यक् चारित्र मूलतः दो वस्तुएँ माँगता है (१) संसार एवं सांसारिक विषयों के प्रति शुद्ध वैराग्य, और (२) वीतराग सर्वज्ञ भगवान ने अपने अनन्त ज्ञान में जिस तरह के चारित्र को मोक्ष-साधक रुप में प्रत्यक्ष देखा है वैसे स्वरुपवाले चारित्र से सर्व कर्मो के क्षय स्वरुप मोक्ष होता है । और दुनिया को यह बताया है कि ऐसे चारित्र के हेतु उनके द्वारा कहे गये मूल गुणों और उत्तर गुणों की आवश्यकता है | महाव्रत एवं तत्त्व पोषक चर्या आवश्यक है। १५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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