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________________ कषायों में चूर रहने की छाया रखी तो सन्तान पूर्व जन्म के धर्म-संस्कार भूतकर विषय-मग्न और कषायमग्न बनेंगी । माँ-बाप ने क्या दिया ? संतान की आत्मा का उच्च मानवभव में आगमन होने के बावजूद उसे अधोगति में गिरानेवाले अहित में अधःपतन दिया । बचपन से माता पिता ही जब यह वस्तु देते हैं तो बाद में आज के शिक्षक इससे भिन्न क्या देंगे? इस तरह माँ-बाप ही संन्तान का अहित करते हैं या और कोई ? उगते हुए बालक को क्या समझ कि कहाँ जाना, क्या करना , मेरा किस में हित है ? माता-पिता अत्यन्त निकट हैं, जैसे वे चलाते हैं वैसे बालक चलता है । वे यदि पुत्र के एकान्त हितैषी तो हितके पथ पर चढा देंगे | पुत्र ऐसे माता-पिता को संपूर्ण भावना के साथ हित के परामर्शदाता गिनता है। यहाँ राजा पुरन्दरदत्त भी वासव-मंत्री को पिता की तरह मानता है, क्यों कि उसे हित का परामर्श देनेवाला समझता है । (४) मित्रवत् क्यों मानता है ? : तदुपरान्त राजा मंत्री को मित्रवत् भी मानता है । कारण ? मित्र दुःख-आपत्तिचिंता के समय आश्वासन-सहायता देकर राहत पहुंचाता है। आज कहीं कहीं देखने में आता है कि सहोदर (सगा) भाई दूर रहता है और मित्र मददगार और सान्त्वना देनेवाला बनता है | हालाँ कि इसका कभी कभी यह कारण भी हो सकता है कि भाई भाई को चाहता न हो । भाई भाई न सुहाता हो । और मित्र अच्छा लगता हो । भाई के साथ अच्छे सम्बन्ध हों । फिर भी संकट-दुःख ऐसी वस्तु है कि कोई भी भला-मानुस करुणा करे, तो भाई को तो विशेष दया करनी चाहिए | फिर भी समय की बलिहारी है कि मित्र मदद करने दौड़ता है और भाई दूर रहता है । तो मित्र के अपने विषय में भी ऐसी संभावना है कि वह भी अपने भाई की सहायता न करता हो । कैसा जमाना है ? न जाने एक से लहू में ही कैसे विरोधी तत्त्व भरे होंगे कि भाई भाई में मेल न हो ? यहाँ जीवन कितनाक जीना है ? फिर भी भाई भाई के बीच चूहे-बिल्ली का सा बैर ? (सांप-नेवले सा?) यह विचारशून्यता है । विचार ही नहीं है कि अहंत्व और दुनियाई माल-मिल्कियत, जिसके लिए वैर-विरोध किया जाता है वह तो देखते देखते अन्त में बिखर जाएगी परन्तु उस अभिमान लालच और वैरविरोध का शल्य साथ लगा रहेगा । __ यह बेवकूफी किस लिए ? भाई हो या मित्र, अरे ! शत्रु ही क्यों न हो, उसके संकट के समय में हमारा मानव-हृदय द्रवित होना चाहिए | पशु-हृदय या पिशाच १५० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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