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१४. इष्ट देव कैसे हों ?
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अतः बात यह है कि इष्ट देव तो सर्व दोष- सर्व विषय कषाय से मुक्त वीतराग अनन्त गुणसम्पन्न सर्वज्ञ और सर्वथा शुद्ध चारित्रवाले होने चहिए। तो गुरू भी (9) सब पापों से मुक्त (२) त्रिविध त्रिविधेन अहिंसादि धर्म के पालक, अनंतज्ञानी सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के ही वचनानुसार सम्यग् ज्ञान के उपासक एवं क्षमादि गुण के सागर होने चाहिए। ऐसे देव और ऐसे गुरू को ही शिरोधार्य करना चाहिए, उन्हीं के अनुयायी बनना चाहिए। ऐसा करने से जीवन दोषमुक्त और 'गुणयुक्त होता जाता है, कर्मों का बोझ उतरता जाता है और सद्गति के पथ पर चलने लगता है।
वासव मंत्री इस प्रकार का देव या गुरू नहीं है तो राजा ऐसे देव गुरू का स्वरूप समझता भी नहीं है परन्तु मंत्री सम्यगदृष्टि होने से देवगुरू के लक्षणों की छाया बाला है, सुयोग्य महाबुद्धि निधान, तत्त्वदृष्टि युक्त एवं सच्चरित्र है। अतः राजा उसे देव गुरू की तरह मानता है।
(३) पिता के समान मानने का कारण :
तब राजा मंत्री को पिता की तरह क्यों मानता है ? इसीलिए कि कल्याण पिता सन्तान का निःस्वार्थ भाव से एकान्त हितैषी और हित की ही सलाह देनेवाला होता है | अपने स्वार्थ के लिए जो सन्तान के अहित को ही हित के रूप में समझाकर उसमें जोड़ दे वह तो बाप है ? या साँप है ?
संतान के अच्छे से अच्छे हितचिंतक या बड़े से बडे विश्वासघती बने तो कौन बने ? माता पिता । क्यों कि बालक जन्म लेकर तो क्या बल्कि गर्भ में आता है तभी से उस पर माता-पिता के बर्ताव के प्रभाव पड़ता है। जन्म के बाद भी वह सब से अधिक माता-पिता के परिचय में एवं उनकी छाया में होता है। बच्चे दूसरे बच्चें के साथ खेलते-कूदते हैं, परन्तु सिर पर माता-पिता की छाया का बडा भार रखते हैं । स्कूल जाने पर वहाँ भले ही शिक्षक की छाया तले आते हैं, लेकिन 'मेरी माँ, मेरे पिताजी कहें वैसे मेरे करना है' यह भाव दिल में भरे रहते हैं। बस गर्भावस्था से लेकर इस सारी स्थिति तक पिता और माता बच्चे पर अपनी अभीस्पित छाया ( प्रभाव ) डाल सकते हैं, उसकी गहरी नींव पडती है । अब यदि माता-पिता धर्म की छाया रखें, तो संतान में उसके उतरने से वह हित के मार्ग पर आगे बढे । इस तरह माँ-बाप सच्चे हितैषी हुए । परन्तु यदि संतान पर राग-रंग की या विषय
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