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________________ प्र० धर्म की भावना बढ़ती है न ? उ० क्या आप सचमुच चाहते हैं कि धर्म - भावना बढे ? गुरू का पदार्पण (पगले) करवाने पर उसी समय यदि गुरू के उपदेश से पत्नी या पुत्र-पुत्री ब्रह्मचर्य व्रत लेना चाहें तो आप लेने देंगे ? वे यदि पांच सौ हजार रूपये शुभ खाते में खर्च करने की प्रतिज्ञा लें तो क्या आप स्वीकार करेंगे ? पर कहिए न कि 'हमें सम्पूर्ण भरोसा है कि हमारे यहाँ कोई ऐसा करे इसकी संभावना ही नहीं है । वाह रे ! सिर्फ बातें धर्म भावना लाने की, जब कि वस्तुतः पाप का कारखाना अविरत चलता रहे यही इरादा है । गुरू का वासक्षेप किस लिए ? धर्म के लिए या पाप के लिए ? धर्म के लिए हो तो वासक्षेप के साथ कोई धर्म भी लेना है सही ? नहीं, सिर्फ वासक्षेप डालिये । मन में विश्वास है कि गुरू का वासक्षेप चमत्कारपूर्ण हैं । इससे धन-दौलत, सुखसमृद्धि आदि अच्छा मिलता है । शरीर स्वस्थ रहता है, फलतः दुनिया में दौड़धूप (परिश्रम) अच्छी तरह हो सकती है ।' बस, गुरू के पास से पाप को ही पोसने की बात होती है । यह गुरू का भगत है या ठगत है ? लेकिन कुगुरूओने ये खेल बताये हों तो भोले लोग कैसे राह नहीं भुलेंगे ? विषय कषाय में रत इष्टदेव से संसार - वृद्धि तात्पर्य - इष्ट देव भी यदि असंयम आरंभ परिग्रह दुष्टताडन, भक्त - वैभव आदि करने की लीलावाले हो, रागद्वेष की प्रवृत्ति करते हों तो उनके भक्त को कैसा आदर्श मिलेगा ? उसे रागादि की प्रवृत्ति में और विषय कषाय में क्या कुछ बुरा भी लगेगा ? रागादि से होनेवाली हिंसा आदि की प्रवृत्ति तथा विषय कषाय तो संसार की वृद्धि करने वाले हैं । जो उन्हें ही कर्तव्य रूप में स्वीकार कर चले उसे ऊपर उठना ही कहाँ रहा ? इन्हें छोड़ने की बात ही कैसी ? वह तो देखता है कि 'मेरे इष्ट देव के पास यह सब उच्च कोटि का है फिर भी वे दोषमय नहीं हैं तो फिर मैं इन सब को रखूँ तो दोषी कैसे ? बस इनमें कोई दोष माने बिना इनकी सेवन जारी रखे तो कैसा भयंकर अशुभ कर्मों का बंध होगा ? और कितने जबरदस्त कुसंस्कार पक्के हो जाएँगे ? तब कुदेव - कुगुरू के पल्ले पड़ने से भवोभव बिगडे इसमें क्या आश्चर्य ? तब क्या विषय कषाय संसार में भ्रमण नहीं कराते ? यदि इनसे भव-भ्रमण न होता हो तो भवभ्रमण होता ही किन कारणों से ? Jain Education International १४८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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