SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किया उससे चलित विचलित नहीं हुआ जाय । जिसके प्रति माता के रुप में पूज्यता का भाव धारण किया फिर उसे ही पत्नी बना कर उसके प्रति वासना का भाव अपनाया जाय ? स्थिर बुद्धि कहाँ रही ? व्यवहार कैसा हो ? प्र० लेकिन व्यवहार तो निभाना रहा न ? उ० ऐसे बदलते हुए व्यवहार आपको कैसे लगते हैं ? बेढंग या शोभास्पद ? इसीलिए ज्ञानियों ने संसार को असार कहा है, उसे फैंकने-दूर करने योग्य बताया है | बेढंगा व्यवहार यदि शोभामय और अपनाने-स्वागत करने योग्य हो तो तीसरी संसार भावना किसलिये भायी जाय ? किस तरह भायी जाय वह ? संसार के प्रति घृणा लाकर कि अरे रे ! यह कैसा बेढंगा संसार है कि इस में पिता पुत्र बनता है और माता पत्नी बनती है ? कब तक चलाना ऐसा बेढंगा संसार? महर्षि कहते हैं, "हे सुबुद्ध कुमार ! इस वास्ते हमेशा यह भावना करने योग्य है कि निश्चित तौर पर कोई भी जीव किसी का भी बाप नहीं, माँ नहीं, पुत्र-पुत्री नहीं, या पत्नी नहीं हैं । वैसे ही मित्र भी नहीं है और शत्रु भी नहीं है, अथवा न तो सगा है न स्वामी या नोकर । दर असल स्वयं पूर्व भव में अपने मोह भाव के अनुसार जैसे जैसे शुभ या अशुभ कर्म संगृहीत किए हो उनके हरएक के विपाक के अनुसार वैसे मोह से भाग्यहीन जीव उस भाव को वेदते (भोगते) हैं। _ 'यहाँ मेरे पिता अच्छे, मनचाहे, बेटा मनभावन, माता ऐसी पत्नी भी बहुत अच्छी मनपसंद मिली' आदि आदि मोह के भावों से उस उस प्रकार के मोहनीय कर्मों का उपार्जन करता है, साथ में अन्य सुकृत द्वारा शुभ कर्म भी उपार्जन करता है, फलतः भवान्तर में इस पुण्य के योग से मनपसंद रिश्तेदार मिल जाते हैं. और वे मोहनीय कर्म भी उदय में आते हैं अतः उस उस प्रकार का मोह कराते हैं । और माता पत्नी बनती है ? कब तक चलाना ऐसा बेढंगा संसार ? महर्षि कहते हैं, "हे सुबुद्ध कुमार ! इस वास्ते हमेशा यह भावना करने योग्य है कि निश्चित तौर पर कोई भी जीव किसी का भी बाप नहीं, माँ नहीं, पुत्र-पुत्री नहीं, या पत्नी नहीं हैं । वैसे ही मित्र भी नहीं है और शत्रु भी नहीं है, अथवा न तो सगा है न स्वामी या नोकर | दर असल स्वयं पूर्व भव में अपने मोह भाव १३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy