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पात्र बन जाता है। __ क्या ऐसा विचार भी आता है कि जिसके साथ काम-सम्बन्ध बाँधा है उसे किसी भव में पूज्य माता के रुप में सम्मान दिया होगा ? तब फिर जीव वह का वही, फिर भी भव बदला अतः पूर्व की माता में आज भोग्या पत्नी की मोहमूढ कल्पना? जीव की बुद्धि का कोई ठिकाना है ? कुतिया के पिल्ले को उसी कुतिया माता पर बड़ा हो कर भोगलुब्ध हुआ देखकर तो घृणा पैदा होती है, और यहाँ भव पलट गया है इसलिए कोई घृणा नहीं? संसार के इस बेढंगे नाटक को पहचान लेनेवाले भव्यात्मा लोग तो इसीलिए इस संसार को असार, गुणहीन और बेहुदा और इसीलिए न रखने योग्य समझते हैं, वैराग्य ले लेते हैं और उसका त्याग कर देते हैं।
बेहुदा परिवर्तन :__ संसार में बेहुदा इतना ज्यादा है कि महर्षि कहते हैं कि 'हे महानुभाव ! एक बार माता का पुत्र, दूसरी बार वही माता पत्नी बनी और वह उसका पति बनता है ! तो एक बार का पति ही दूसरी बार उसका शत्रु बनता है ! तो एक बार की पत्नी ही दूसरी बार माता बनती है ! और वह माता फिर पत्नी बन बैठी ! वैसे ही एक बार सेठ का नौकर बाद में उस सेठ का ही सेठ (मालिक) बनता है, और जो सेठ था सो नौकर बन जाता है। इस असार, तुच्छ संसार में जीवों की यह हालत होती है ।'
अनेक भवों का चित्र :__ कैसी विचित्रता है ? दृष्टि on the whole अर्थात् समग्र रुप से अनेक भवों पर पड़नी चाहिए, तभी यह विचित्रता दिखाई देती है । उसे इस तरह देखा जाय मानो सामने हमारे अलग अलग भवों का चित्रपट है, उसके एक एक ब्लॉक में एक एक भव चित्रित है । उसमें जो भिन्न भिन्न रिश्तेदार हैं वे बाद में आनेवाले भवों में विचित्र, बेहदे, विपरित-सम्बन्धो में आये दिखाई देते हैं। देखने का मजा देखो ! एक चित्र में जिस व्यक्ति को माता के वेश में देखकर हम उस के पैरों पड कर नमस्कार करते हैं, दूसरे चित्र में पत्नी वेश में उसी व्यक्ति से सेवा-नमस्कार ग्रहण करते हैं, उसे सख्त हुक्म या सजा देते हैं | कैसा कुरुप दृश्य है ! बेढंगी हालत है ! इसमें हमारी विवेक-बुद्धि कहाँ रही ? स्थितप्रज्ञता क्या रही ?
स्थित-प्रज्ञा अर्थात् 'स्थिर-प्रज्ञा' वह है जिसमें एक शुभ भाव जो मन में धारण
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