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प्रिय स्वजन थे जान से ज्यादा प्यारे सगे थे ।' तो कम से कम यहा ( इस भव में) उन्ही जीवों के कलेवर को कुचलते-खाते हुए राचें माचें तो नहीं । जगत के पदार्थों के प्रति मोह दूर करने का यह एक अमोघ चिंतन है कि 'ये पदार्थ उन जीवों के कलेवर हैं जो किसी समय हमें जान से ज्यादा प्यारे थे । अतः आज उनके साथ साबका पड़ा है। तो ऐसे ही काम चलाओ, उन पर राग- आसक्तिममता करने की आवश्यकता नहीं है।' मन में ऐसी विचारणा दृढ बनाकर राग के उभार को दबाने का अभ्यास करने लगो । फिर देखो, मन कितना हल्का और प्रफुल्लित रहता है। राग कम करने लगे तो फिर उस वस्तु या व्यक्ति के साथ कुछ हर्ज-ऐतराज हो जाने पर भी मन को उतना उद्वेग नहीं होगा, क्यों कि
स्नेही जीवों के विषय में राग का दमन कर यह विचारणा कर रखी थी कि 'किसी जन्म में मैंने इन्हें या इन्होंने मुझे भयानक रीती से कुचला है और किसे पता है कि अभी भावी भवों में ऐसा क्या क्या नहीं होगा ? अत: ठीक है, इस समय सम्बन्ध है तो निबाहना है, वरना राग में हृदय से ओंधा नहीं हो जाना है।' ऐसा सोच रखने के बाद यदि कुछ हर्ज उपस्थित हो तो भी क्या उसमें मन को इतना क्लेश होगा ?
इस तरह जड़ वस्तु के विषय में भी राग का दमन करने के लिए यही विचार करे कि, 'ये भी ऐसे जीवों के कलेवर (शरीर ) हैं जिन्हें किसी भव में मैंने खूब प्रेम से आनन्द दिया था प्राणों से प्रिय बनाया था, आज ऐसी स्थिति आ खड़ी हुई है कि उन्हीं जीवों को कूट पीस कर उनके कलेवरों का भोग करने का प्रसंग आया है तो उसपर क्या राग करना ? इस तरह राग कम करने के बाद उस वस्तु में कुछ विघ्न-बाधा पड़े तो भी उससे मन नहीं बिगडेगा ।
माता पत्नी बने :
महर्षि कुवलयचंद्र से कहते हैं - 'हे कुमार ! यह भी देखो, कि जीव ने एक बार जिसके प्रति अत्यन्त भक्ति और आदर के साथ माता की तरह पूजा की, दूसरे भव में कामराग के मोह से 'यह तो मेरी पत्नी है' इस तरह कर के उसी के साथ जीव काम क्रीड़ा करता है न ?
महर्षिने पहले प्रेम पात्र पर होनेवाले हिंसा के तांडव बताये, अब यहाँ पूज्य माता के साथ विषय रंग के खेल दिखाये । जगत में भटकते हुए जीव की यह कैसी बीभत्स, घृणित स्थिति है । यहाँ माता के रुप में मानता हो अतः लेश भी काम का विचार नहीं आता, भव बदलने पर वही जीव पूजा - पात्र के बदले काम
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