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________________ प्रणाम किया, इस विचित्र संसार में किसी भव में उन्हीं को लातों से मार कर चूर कर दिया " यह भी संभव है । कल्पना करो कि उक्त गुरुजन का जीव प्रमाद में पड़ कर एकेन्द्रिय मिट्टी में उत्पन्न हुआ । और वह प्रणाम करनेवाला जीव कुम्हार बना, तो वह मिट्टी लाकर क्या करेगा। पैरों तले रौंद कर चूरा ही न ? अथवा यह सेठ (मालिक) बना और वह गुरुजन गुलाम बना तो रुआब में आकर उस की गलती पर उसे लातों से मार मार कर कुचलेगा। जीव को दंड तो उसके अपने दुष्कृत-पाप-कषायादि प्रमाद ही देते हैं, परन्तु उसमें निमित्तरूप एक समय के पूजक सेवक जीव को बनाकर ऐसी मार मरवाते हैं । जिसके पीछे रोना उसी को होमना : महर्षि और आगे बताते हैं- “हे सुबुद्ध ! इस विलक्षण जगत में जिसकी मृत्यु पर जीव एक बार अविरल अश्रुधारा बहाता है विलाप करता है सिर पीटता है, छाती कूटता है, दूसरी बार किसी दूसरे भव में उसी मरनेवाले जीव के शरीर के मांस से वह रोनेवाला जीव वहाँ किसी का मृत-कार्य (क्रिया करम) करता है, मृत्यु-भोज के लिए उसका होम करता है । " कैसी करुणता ? यहाँ 'हाय मेरा प्यारा मर गया । हे मेरे प्रभु! मुझे मौत क्यों नहीं आयी ?' ऐसे बोल बोल कर जो रोता-पीटता है वही रोनेवाला जीव समय आनेपर भवान्तर में मिथ्याधर्म में फँस कर अपने किसी रिश्तेदार के श्राद्ध आदि के लिए बलि देने को वह दूसरा जीव जो बेचारा जानवर बना है - सो उसे पकड कर, टुकडे कर के बलिदान में उसका माँस चढ़ाता है । माँस से ब्राह्मणों को जिमाता है। ऐसे घोर कृत्य करनेवाले और दूसरे जीवों को काट डालनेवाले को यह पता भी है की यही जीव एक बार कभी तेरे प्राण-प्रिय प्रेमी थे ? और जब वे मरे तब तू सिर पीटकर छाती कूट कर रोया था ? अब क्या देख कर उन्ही को काट कुट रहा है ? अरे वह पंचेन्द्रि जीव न बना हो और कदाचित् फल का जीव बना हो तो भी उस पर उसी के एक वक्त के स्नेही के हाथों यह काटकूट और मसला जा संभव है। अज्ञानवश मालूम नहीं है कि, “किस जीव पर हम आज यह उत्सव मना रहे हैं ? यह पहले का हमारा पुत्र होगा, माँ होगी क्या पता क्या हो ?" प्र० तो क्या खाएँ- पीएँ नहीं ? उ० खाये - पीये बिना कहाँ रहनेवाले हो ? लेकिन सिर्फ इतना ही यदि समझ लें कि 'जिसकी यह हिंसा आरम्भ समारम्भ कर रहे हैं, सो पूर्व हमारे प्राणाधिक १३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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