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क्या स्नेह के बिना व्यवहार निभाता है ? क्यों नहीं निभ सकता ? अरे । बहुतेरा निभाते हो। स्नेही मिलनेपर कहते हो, "कुछ काम हो तो कहना" परन्तु अन्तस्तल में ऐसा कोई प्रेम नहीं उभरता कि वह कुछ भी काम कहे और आप कुछ भी करने को राजी हो । कइयों के साथ विवाहादि में स्नेह के बिना व्यवहार निभाते ही हो न ? यह तो समकिती जीव की बात है । क्या कहते हो ?
'सम्यग्दृष्टि जीवडो करे, कुटम्ब-प्रतिपाल । अन्तर से न्यारो रहे, ज्युं धाव खेलावत बाल ।।
समकिती आत्मा अन्तर से स्नेह-रहित रहकर कुटुंब का पालन करता है | धाय माँ राजकुमार का पालन करती है न? क्या उसे उस पर उतना स्नेह होता है जितना अपने पुत्र पर ? नहीं, यह तो केवल वेतन के लिए सेवा है। देखने में तो राजकुमार का पालन अपने पुत्र से कहीं अधिक परिश्रम और सामग्री से करती है, फिर भी स्नेह यथार्थ में तो अपने पुत्र के प्रति है, यह बात यदि कोई साँप आता हो या मकान में आग लग जाय तब मालूम हो जाती है। दोनों बालकों में से पहले अपने बच्चे को सम्हालेगी, बाद में राजपुत्र को । क्यों कि राजपुत्र सम्हालने-पलने का कार्य आन्तरिक स्नेह से रहित है। समकिती को संसार व्यवहार इस तरह पूरे करने होते हैं ।
| जिसका दूध पिया उसीका खून पिया जाता है :
महर्षि कहते हैं, हे नरोत्तम ! तुम यह देखो जीवने एक भव में जिस माता का स्तन-पान किया उससे जीकर बड़ा हुआ, अन्य किसी भव में उसी माँ के जीव का खून पीता है।' यह किस तरह से हो ? पुत्र स्वयं मर कर भव-भ्रमण करते करते शिकारी पशु के रूप में जन्मा, और माता वहाँ वन का निर्दोष प्राणी बनी, तो वह इसका खून पीएगा। तब माता-पुत्र वाले भव में परस्पर जो ममता रखी थी उसके अरमान क्या रहे ? अनन्त काल से इस संसार-चक्र में भटकते भटकते जीव का दूसरे जीव के साथ विविध द्वेषी प्रेमी के सम्बन्ध में आना सुलभ एवं सुसंभव है। उसमें वह प्रेम और द्वेष दोनों करके मरता है, भव में भटकता रहता
| जिसको प्रणाम उसीकी लात से चूरा :- |
महर्षि कहते हैं , “जिन्हें पूज्य गुरुजन-रुप मानकर उनके चरणों में प्रतिदिन
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