________________
महेश्वर दत्त ने ही पिता के श्राद्ध के दिन उसे पडरे को बलि के लिए काट डाला। टुकडे कर के उसके मांस से ब्रह्म-भोज दिया। जिसका ऐसा भविष्य होनेवाला हो उस पर यहाँ मोह-ममता करना किस काम आया ? इस में क्या बुद्धिमानी की? जरा भी अनुचित ममता न की होती तो संभवतः पिता को सलाह देने का मन होता कि 'अब तो आप मृत्यु के निकट हैं, भगवान को छोड अन्य किसी में क्यों मन रखते हैं ? परलोक में न भैंसा सहारा देगा न देवी ही । और मैं भी नहीं दूंगा। सहारा देगा तो वह परमात्मा ही देगा। उसमें ही मन पिरोइए। परन्तु पिता के प्रति अनुचित ममता न हो तब कहे न ? __ तब जीव की कैसी दुर्दशा ? जीव माता, पिता, पत्नी, पुत्र आदि पर अथाह ममता रखता है, परन्तु यह नहीं देखता कि पूर्व के किसी भव में इस एक एक ने मेरी हत्याएँ की है, फिर चाहे यह कसाई हो और मैं बकरा ! अथवा कौन जानता है, भविष्य में भी ये मेरी हत्या करनेवाले बनें। तो ऐसा ही नहीं है कि सामनेवाले ही ऐसा करते हैं और जीव स्वयं तो बिल्कुल बुद्धिमान् (भोला-भाला) हो । वह भी ऐसा करता है। वे महर्षि कहते हैं:
| जिसकी चंपी उसका विदारण :
हे कुमार ! जिन कोमल हाथों से जिसने दूसरे शरीर की चंपी की, वही मूर्ख अपने ही हाथों उसे आरी या यंत्र से फाड़ता है । ममता कहाँ की जाय ?
यह सब कौन करवाता है ? अज्ञान! परभव में यह पता नहीं होता कि ' जिसे आरी आदि से चीरता हूँ वह मेरा पूर्व का कोई अतिप्रिय स्नेही है ।' उक्त महेश्वरदत्त के ऐसा ही हुआ | उसने ब्राह्मणों को भैंस के माँस का भोजन दिया तब, मांस की बास से, महेश्वरदत्त की माता जो गली में कुतिया बनी थी, खिंच कर आयी, घर में घुसी। बेटे को पहचान नहीं है । अतः यों तो माता के शरीर की चंपी की थी, परन्तु कुतिया ने घर को अपवित्र किया है, ऐसा मान कर लकडे के सोटे से वार किया, जिससे कुतिया की कमर टूट गयी । वह बेचारी चीखें मारती हुई बलखती हुई बाहर निकली। माता-पिता के प्रति स्नेह कहाँ रह गया ?
संसार के रंगमंच पर एक बार स्नेह का नाटक करना और दूसरी बार कल्लेआम का नाटक खेलना यह नाटकीपन और मूर्खता ही है या और कुछ ?
तो क्या व्यवहार नहीं निभाना ? ऐसा प्रश्न अस्थाने (अयोग्य) है । व्यवहार अर्थात् सिर पर ली हुई जिम्मेदारी पूरी करना एक बात है और निरर्थक प्रेम के चोंचले करना और बात है।
-१३२ -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org