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________________ | १२.महर्षि की भव्य वाणी महर्षि कहते हैं, “हे कुमार ! जीव जब तक सिद्धिधाम मोक्षपद नहीं पा लेता तब तक इस संसार में नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव के भवों में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे अनन्त जीव न पाते हों । इसका अर्थ यह कि संसार की वस्तु मिलने में कुछ नवीनता या आश्चर्य नहीं है, फिर भी जीव नाहक इसमें मोह करता है | प्र० तो क्या मिलने पर उससे मोहममता होने में कोई हर्ज़ है ? उ० हाँ, हर्ज़ है ही न। यह घोर अज्ञान है जीव का कि वह जिससे मोह-ममता रखता है उसकी विलक्षण खासियत को नहीं जानता । महर्षि यह समझाने के लिए कहते हैं - | जिस पर ममता उस पर द्वेष :- | _ 'हे महानुभाव ! जिसके वियोग में जीव यहाँ ऐसे मोहमूढ मनवाले बनते हैंयहाँ तक कि जीवित भी नहीं रहते और प्राणों का त्याग कर देते हैं उस (व्यक्ति) को बाद में अन्य भव में जरा भी देखने में समर्थ नहीं होते । भला हो तो वह दुश्मन बनकर मिले, वहाँ उसके प्रति इतनी नफरत और द्वेष होता है कि उसकी और देखने को भी तैयार न हो । भव बदलने पर तो यह स्थिति होती है, परन्तु कभी कभी तो एकही भव में ऐसा होता है | चुलनी ने ब्रह्मदत्त को जन्म दिया, और उसपर उसे अगाध प्रेम था, परन्तु चुलनी विधवा होने के बाद दूसरे के प्रेम में पड़ी तो अपनी युवावस्था को पहुँचाते हुए पुत्र ब्रह्मदत्त को देखने को भी तैयार नहीं थी । अतः उसका कांटा निकाल देने का षड्यन्त्र किया ! महर्षि कहते हैं| जिसकी रक्षा उसकी हत्या :___ 'भाग्यवान् ! जिसे अपने प्राणों से भी अधिक मानकर अपनी अगाध शक्तिका व्यय कर के जिसका रक्षण-पालन-पोषण किया, अन्य किसी भव में उसी व्यक्ति को खुद तलवार वगैरह शस्त्रों के प्रहार कर चीर डाले !' कैसी दुर्दशा ? इस संसार में क्या नहीं होता ? __ महेश्वर दत्त ब्राह्मण ने अपने पिता की अच्छी तरह सेवा-शुश्रुषा की, परन्तु वह पिता देवी को भैंसे की बलि चढ़ाने की अपने पुत्र को सलाह दे कर मरा, अतः वह पिता अपने ही घर में भैंस के पेट से पडरा बन कर जन्मा ! और १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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