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रहता है । अन्यथा रस भी टूट जाता है, और कुछ अभाव पैदा होता है, तो यह भी यथार्थ है कि वस्तु एक की एक हो परन्तु अन्तर के सुन्दर भाव भी साथ में मिलें तो वह वस्तु अत्यंत मूल्यवान बन जाती है । देखते हैं न कि प्राचीन काल के महापुरुषोंने हृदय के उत्कट भावों से खुब बलिदान देने के साथ सुन्दर भावों से जिन प्रतिमाएँ बनवाई थी, साथ ही कारीगरों ने भी ऐसे सुन्दर भाव सहित जिन प्रतिमा को गढा था, अतः वे प्रतिमाएँ आज भी दर्शन-पूजन करनेवालों को उच्च-शुभ भावों में निमस कर देती हैं न । यहाँ भी ऐसा ही है | शिष्यों-श्रोताओं का उचित बर्ताव देखकर गुरु बड़े सद्भाव एवं रुचि के साथ शास्त्र की बातें सुनाते हैं, वे बातें सुननेवाले मे उच्च-शुभ भाव जागृत करती हैं। अतः पहली आवश्यकता है योग्य गुरु के प्रति श्रोता-शिष्य के योग्य व्यवहार की ।
हाथ जोड़े हुए रखने से महान ग्राहकता उत्पन्न होती है ।
गुरुमुख पर दृष्टि केन्द्रित करने से एकाग्रता तथा गुरुवचन की ओर झुकाव पैदा होता है।
ये आधारभूत आवश्यकताएँ है। इन्हें लाने से सहजतया ज्ञानावरणीयादि कर्मों का क्षयोपशम (आंशिक नाश) उपस्थित होगा । और उत्तम वस्तु की प्राप्तिपरिणमन के लिए योग्य भूमिका उपस्थित होगी । तब जो थोडा प्राप्त हुआ होगा वह भी पानी पर तेल की बूँद जैसे फैलती है वैसे हृदय-पट पर फैल जाएगा । इस तरह से श्रवण की विधि को सम्हाले रखने से आत्मा का अभ्युदय करना कठिन कहाँ है ? अनादि काल के मद-मोह आदि चोरों को दबाना क्या मुश्किल है ? हाथ जोड़कर, दृष्टि केन्द्रित कर, सुनने का अभिग्रह ले कर बैठो और सुनो । घंटे का न सही, आधे घंटे का, पांव घंटे का क्यों न हो पर अमिग्रह-प्रतिज्ञा कर के सुनना चाहिए जिससे मन शिथिल न हो, सुस्त, अजाग्रत न हो जाय ।
अब कुमार को महर्षि भव्य बातें सुनाते हैं ।
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